पंजाब में बाढ़ आखिर क्यों: प्रकृति की चेतावनी या इंसानी लापरवाही का नतीजा?

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“प्रकृति चेतावनी देती है, रुष्ट नहीं होती – असली वजह इंसानी लापरवाही और असंतुलित विकास”

प्रियंका सौरभ स्वतंत्र पत्रकार, कवयित्री और व्यंग्यकार

पंजाब में बाढ़ को केवल प्राकृतिक आपदा कहना सही नहीं होगा। नदियों का स्वरूप, असामान्य बारिश और जलवायु परिवर्तन तो कारण हैं ही, लेकिन असली दोषी अनियोजित निर्माण, अवैध खनन, ड्रेनेज की उपेक्षा और धान-प्रधान कृषि पद्धति भी है। प्रकृति चेतावनी देती है, रुष्ट नहीं होती। यदि हम नदियों को उनका मार्ग दें, जल का विवेकपूर्ण उपयोग करें और फसल विविधिकरण अपनाएँ, तो बाढ़ की मार को कम किया जा सकता है। पंजाब को चाहिए कि वह पर्यावरण के साथ संतुलन बनाकर विकास की नई राह तय करे।

पंजाब, जिसे देश की अन्नदाता भूमि कहा जाता है, आज बाढ़ की विभीषिका से बार-बार जूझ रहा है। खेत जलमग्न हो जाते हैं, गाँव डूब जाते हैं, सड़कें और मकान ढह जाते हैं। हर बार यह सवाल उठता है कि आखिर पंजाब में बाढ़ क्यों आती है? क्या यह केवल प्रकृति की रुष्टता है या फिर इसके पीछे कहीं न कहीं हमारी अपनी भूलें भी जिम्मेदार हैं? सच यह है कि प्रकृति कभी किसी से नाराज़ नहीं होती, वह केवल अपने नियमों और संतुलन के आधार पर काम करती है। जब हम इंसान उसकी मर्यादाओं को लांघते हैं, तो परिणाम हमें बाढ़, सूखा, प्रदूषण और आपदा के रूप में भुगतने पड़ते हैं।

पंजाब की धरती पाँच नदियों की भूमि कहलाती है। सतलुज, ब्यास, रावी, चिनाब और झेलम ने इस राज्य की पहचान बनाई। इनमें से अधिकांश नदियाँ हिमालय से निकलती हैं और मानसून के मौसम में बर्फ़ पिघलने व वर्षा के कारण जलस्तर अचानक बढ़ा देती हैं। नदियों की धाराएँ तेज़ होती हैं और जब वे मैदानों में प्रवेश करती हैं तो पानी फैलकर बाढ़ का रूप ले लेता है। भाखड़ा, पोंग और रणजीत सागर जैसे बड़े बांध भले ही बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई के लिए बने हों, लेकिन जब इनसे अचानक पानी छोड़ा जाता है तो आसपास के इलाके जलमग्न हो जाते हैं। यह प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ प्रबंधन की कमी को भी उजागर करता है।

पिछले कुछ वर्षों में मानसून का पैटर्न काफी बदल गया है। पहले जहाँ बरसात धीरे-धीरे और लंबे समय तक होती थी, अब अचानक भारी वर्षा कम समय में हो जाती है। इससे नदियों और नालों में पानी का दबाव तेजी से बढ़ता है और फ्लैश फ्लड जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। जलवायु वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्रीनहाउस गैसों का बढ़ना और ग्लोबल वार्मिंग इसका बड़ा कारण है। इससे हिमालयी ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं। परिणामस्वरूप गर्मियों और बरसात के मौसम में नदियों का जलस्तर अनियंत्रित ढंग से बढ़ जाता है।

प्राकृतिक बाढ़ को विनाशकारी बनाने में सबसे बड़ी भूमिका इंसानी हस्तक्षेप की है। नदियों के किनारों और तलहटी में अंधाधुंध निर्माण कार्य हुए। गाँव और शहर नालों व पुरानी जलधाराओं पर बस गए। रेत और बजरी का अत्यधिक खनन नदियों की गहराई और धार बदल देता है। जब पानी का मार्ग रुकता है तो वह आसपास की बस्तियों में घुस आता है। पंजाब में ड्रेन और नहरों का जाल तो है लेकिन अधिकांश जगह इनकी सफाई व मरम्मत समय पर नहीं होती। नतीजतन बारिश का पानी निकलने की जगह वापस गाँव-शहरों में भर जाता है। इसके साथ ही धान जैसी फसलों ने भूजल का अत्यधिक दोहन किया। मिट्टी की जलधारण क्षमता कम हुई और प्राकृतिक जलसंचयन तंत्र टूट गया।

पंजाब हरित क्रांति का केंद्र रहा। यहाँ गेहूँ और चावल की खेती ने देश को अन्न सुरक्षा दी, लेकिन इसके दुष्परिणाम भी सामने आए। धान की फसल पानी की अत्यधिक मांग करती है। हर साल लाखों ट्यूबवेल से भूजल निकाला गया। इससे भूमिगत जलस्रोत तेजी से सूख गए। जब ऊपर से भारी बारिश या बाढ़ आई तो जमीन उसे सोख नहीं पाई और जलभराव की समस्या बढ़ गई। वनों की कटाई और हरित क्षेत्र के सिकुड़ने से भी प्राकृतिक संतुलन बिगड़ा। नदियों के किनारे पेड़ों की जड़ें पानी को रोकती और मिट्टी को बांधती थीं, लेकिन अब कटान तेज़ हो गया है।

पंजाब में बाढ़ केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक संकट भी है। हजारों एकड़ फसलें बर्बाद हो जाती हैं। किसान कर्ज़ में डूब जाते हैं। ग्रामीण आबादी बेघर हो जाती है और पलायन के लिए मजबूर होती है। सड़कों, पुलों और बिजली के ढांचे को भारी क्षति पहुँचती है। बीमारियों का प्रकोप फैलता है, खासकर डायरिया, मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियाँ। मानसिक आघात से समाज में असुरक्षा और हताशा की भावना पनपती है।

वास्तव में प्रकृति का कोई भाव नहीं होता। वह केवल संतुलन चाहती है। जब हम उसकी मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं, तब वह चेतावनी के रूप में बाढ़, सूखा या आपदा के रूप में सामने आती है। इसलिए यह कहना कि प्रकृति नाराज़ है, सही नहीं है। सच तो यह है कि इंसान ने प्रकृति को नाराज़ करने लायक हालात पैदा कर दिए हैं।

समाधान स्पष्ट हैं। नदियों के किनारे बाढ़ क्षेत्र को चिन्हित कर वहाँ निर्माण पूरी तरह प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। पुराने नालों और ड्रेनों की नियमित सफाई व चौड़ाई बढ़ाई जानी चाहिए। अवैध खनन पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए ताकि नदियाँ अपने प्राकृतिक स्वरूप में बह सकें। धान के स्थान पर मक्के, दालों और सब्जियों की खेती को बढ़ावा दिया जाए, जिससे पानी की खपत कम होगी और भूजल का स्तर सुधरेगा। राज्य और केंद्र सरकार को मिलकर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजना बनानी होगी। साथ ही स्थानीय लोगों को बाढ़ से बचाव और प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित करना भी आवश्यक है।

पंजाब में बाढ़ का संकट केवल प्राकृतिक कारणों से नहीं है। यह हमारी विकास नीतियों की असंतुलित दिशा का परिणाम है। यदि हमने अभी भी सबक नहीं लिया तो आने वाले वर्षों में बाढ़ और भयावह हो सकती है। प्रकृति हमें बार-बार चेतावनी दे रही है कि उसके साथ छेड़छाड़ मत करो। हमें याद रखना होगा कि प्रकृति से लड़ाई नहीं, बल्कि उसके साथ तालमेल ही स्थायी समाधान है। पंजाब में बाढ़ केवल आपदा नहीं, बल्कि हमारी नीतियों, आदतों और प्राथमिकताओं की परीक्षा है।

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