नमस्कार । आज बात आगरा की, जहाँ शिक्षा के नाम पर खेल चल रहा है। उस शिक्षा के अधिकार की, जिसे हमने कमजोर तबके के बच्चों के लिए एक उम्मीद की किरण माना था, आज वही उम्मीद धूल फाँक रही है। जिलाधिकारी की अध्यक्षता में हुई एक बैठक, जिसमें बड़े-बड़े फैसले लिए गए, लेकिन उन फैसलों की बुनियाद में ही अगर नियमों की अनदेखी हो, तो फिर भरोसा किस पर करें?
RTE एक्ट: कानून या खिलवाड़?
आगरा में डीएम अरविंद मल्लप्पा बंगारी की अध्यक्षता में जिला शुल्क नियामक समिति की बैठक हुई। एजेंडा था आरटीई एक्ट 2009 के तहत वंचित और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों के एडमिशन न लेने वाले स्कूलों पर कार्रवाई। बेसिक शिक्षा अधिकारी ने बताया कि निजी स्कूल अनावश्यक डॉक्यूमेंट मांगते हैं, खुद ही सत्यापन प्रक्रिया अपनाकर आवेदन रद्द कर देते हैं। गायत्री पब्लिक स्कूल, कर्नल ब्राइटलैंड जैसे स्कूलों को नोटिस दिए गए, लेकिन कोई जवाब नहीं। ये सिर्फ कुछ नाम हैं, सोचिए कितने ऐसे स्कूल होंगे जो चुपचाप नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। क्या हमारा कानून इतना कमजोर है कि स्कूल उसे ठेंगा दिखा दें? और प्रशासन सिर्फ नोटिस देकर इतिश्री कर ले? ये सिर्फ शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन नहीं, ये उन गरीब बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है, जिनके लिए ये कानून बनाया गया था।
अभिभावकों का दर्द: फीस, ड्रेस और वैन का खेल
बैठक में अभिभावकों ने अपनी पीड़ा रखी। हर साल ड्रेस बदलना, बेतहाशा फीस बढ़ाना, स्कूल की ब्रांडिंग के नाम पर किताबों और कॉपी का अनावश्यक बोझ डालना, स्कूल वैन में क्षमता से ज़्यादा बच्चे भरना – ये सब वो बातें हैं जिनसे हर साल अभिभावक परेशान होते हैं।
समिति के चार्टर्ड अकाउंटेंट ने बताया कि नियम है कि स्कूल पांच साल तक यूनिफॉर्म नहीं बदलेंगे। और तो और, तय हुआ कि जिन स्कूलों में फीस बढ़ी है या ड्रेस बदली गई है, उनकी सूची 15 दिन में दी जाए और सभी स्कूल अपनी फीस प्रदर्शित करें। ये सब बातें तो अच्छी लगती हैं सुनने में, लेकिन क्या ऐसा कभी होता है? या ये सिर्फ कागजी खानापूर्ति है, जिससे अभिभावकों को कुछ देर की तसल्ली मिल जाए?
समिति का गठन ही सवालों के घेरे में!
अब असली बात पर आते हैं। प्रोग्रेसिव एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स अवेयरनेस (PAPA) संस्था के राष्ट्रीय संयोजक दीपक सिंह सरीन ने जो आपत्ति जताई है, वो पूरे सिस्टम पर सवाल खड़ा करती है। उनकी संस्था 2021 से इस समिति के गठन की मांग कर रही थी, लेकिन जब 2025 में समिति बनी, तो उसमें नियमों की अनदेखी हुई। अभिभावक संगठनों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया! और तो और, समिति में उन स्कूलों से जुड़े प्रतिनिधियों को शामिल किया गया है, जिन पर आरटीई अधिनियम और हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के उल्लंघन के गंभीर आरोप हैं!
यह कैसा न्याय है? जिन पर खुद नियम तोड़ने का आरोप है, उन्हें ही नियमों को बनाने वाली समिति में शामिल कर लिया गया? क्या यह आँख में धूल झोंकना नहीं है? दीपक सिंह सरीन ने कहा है कि वे डीएम और सीए को लिखित शिकायत देंगे और समिति की समीक्षा और पुनर्गठन की मांग करेंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि अगर समिति का पुनर्गठन उचित रूप से नहीं हुआ तो अभिभावकों के साथ धरने पर बैठेंगे
ये सिर्फ एक समिति का मामला नहीं है, ये हमारे देश के प्रशासनिक ढांचे की कमजोरी को दर्शाता है। जब नियम बनाने वाले ही नियम तोड़ें, तो आम जनता को इंसाफ कैसे मिलेगा? क्या ये सिर्फ तारीख पर तारीख का खेल नहीं है, जिसमें असली पीड़ित यानी अभिभावक और बच्चे पिसते रहते हैं? सवाल बड़ा है और जवाब दूर तक कहीं नज़र नहीं आता।
-मोहम्मद शाहिद की कलम से