आगरा शहर की ‘रईसी’ का असली चेहरा: जहाँ पैदल चलना है एक अपराध

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आगरा। ताज का शहर। और अब… बड़ी-बड़ी गाड़ियों और उनके बड़े-बड़े अहंकार का शहर। शहर की महानता का पैमाना अब उसकी विरासत नहीं, बल्कि यह तय करता है कि उस शहर में बिना कार वाला इंसान, यानि दूसरे दर्जे का नागरिक, सड़क पर चलने के लिए कितनी जगह पाता है। या नहीं पाता है।

ज़रा अपनी आँखें नीचे झुकाइए। जमीन पर नहीं, अपने पैरों के नीचे बने फुटपाथ पर नजर डालिए। अगर दिखाई दे तो। क्योंकि अब फुटपाथ ‘पैदल पथ’ नहीं रहे, वे ‘प्राइवेट प्रोपर्टी’ के एक्सटेंशन बन गए हैं। ये वो जगहें हैं जहाँ संभ्रांत मुहल्लों के ‘महान’ लोगों की कारों के टायरों की धूल जमती है, उनके बगीचे फैलते हैं, और उनकी निजी सुरक्षा के लिए खंभे गड़े होते हैं।

यह कोई छुपी हुई बात नहीं है। यह खुलेआम, दिनदहाड़े, हो रहा है। और सबसे मजेदार बात? इसे देखने-समझने वाला कोई नहीं है। या यूं कहें कि देखने वाली संस्थाएं आँखें मूंदे हुए हैं।

अगर यही अतिक्रमण शहर के किसी गरीब इलाके में होता, तो क्या होता? अतिक्रमण विरोधी दस्ते की गाड़ियाँ तुरंत पहुँच जातीं। बुल्डोजर चलते। एक गरीब की झोपड़ी, उसकी रोज़ी-रोटी की छोटी सी दुकान, सब कुछ तहस-नहस हो जाता। मीडिया के कैमरे वहाँ मौजूद होते। इसे ‘कानून का शासन’ बताया जाता।

लेकिन जब शहर का ‘रईस’ अपने बंगले की चहारदीवारी को सार्वजनिक जगह पर बढ़ा लेता है, तो कानून कहाँ चला जाता है? क्या उस बुल्डोजर के ट्रैक उस पॉश कॉलोनी की तरफ मुड़ने से डर जाते हैं? या फिर नगर निगम का नक्शा अचानक से उन इलाकों में गायब हो जाता है?

यह एक सुनियोजित, सुव्यवस्थित और सत्ता-समर्थित ‘अपहरण’ है। सार्वजनिक जगह का अपहरण। आम आदमी के अधिकारों का अपहरण। और इस अपहरण में ‘पुलिस’, ‘नगर निगम’ और ‘प्रशासन’ जैसी संस्थाएँ मूक दर्शक बनी हुई हैं। या शायद, सहयोगी।

सवाल यह है कि जिस सार्वजनिक जगह के लिए कर चुकाने का दावा ये ‘महान’ लोग भी करते हैं, उस पर कब्जा करने का उन्हें अधिकार किसने दिया? क्या पैसा और ताकत इंसान को कानून से ऊपर का दर्जा दे देती है? क्या एक शहर में दो तरह के कानून चलते हैं? एक गरीब के लिए और दूसरा अमीर के लिए?

हमारे शहरों का मिजाज सचमुच बदल रहा है। वह एक ऐसा मिजाज बनता जा रहा है जहाँ इंसानियत, सहअस्तित्व और साझेदारी की जगह ‘मैं’ और ‘मेरा’ ने ले ली है। जहाँ पैदल चलने वाला एक बाधा है, एक ऐसी चीज है जो शहर की ‘शान’ के आगे खड़ी होकर उसकी रौनक को कम करती है।

ताजमहल की नगरी में आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या एक इंसान सिर्फ इसलिए गौण है क्योंकि उसके पास कार नहीं है? क्या उसके पैरों के नीचे जमीन भी नहीं होनी चाहिए?

जब तक इस सवाल का जवाब नहीं मिलता, तब तक ताज की खूबसूरती के पीछे छुपा यह कुरूप सच हमारे शहरों की ‘महानता’ पर एक बड़ा सवालिया निशान बना रहेगा। और हम सब, इस सवाल के सामने खड़े होकर, शर्म से सिर झुकाएंगे।

मोहम्मद शाहिद की कलम से

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