एक पुलिसिया फरमान और लाखों की रोजी-रोटी का सवाल: क्या ये अमृत काल का ‘विकास’ है?

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उत्तर प्रदेश में एक नई व्यवस्था शुरू हुई थी, जिसका नाम है पुलिस कमिश्नरी व्यवस्था। कहने को तो यह ब्रिटिशकाल की व्यवस्था है, लेकिन लगता है इसे आधुनिक भारत के ‘अमृत काल’ में कुछ ज्यादा ही शक्तियाँ दे दी गई हैं। अब पुलिस खुद ही आरोपी को पकड़ती है, और कुछ मामलों में तो खुद ही अदालत बन कर जमानत भी देती है।

कहने का मतलब, पुलिस ही डॉक्टर, पुलिस ही नर्स, पुलिस ही मरीज और पुलिस ही अस्पताल। और अगर आप किसी मामूली बात की शिकायत लेकर जाएंगे तो हो सकता है, आपके ऊपर ही 125, 135 (107, 116) जैसी धाराएँ लगा कर आपसे ही जमानत ली जाए क्यो की जमानत लेने का अधिकार पुलिस के पास आ गया है।

इस बारे में हमारे दुवारा एक RTI डाली थी, जिसमे पूछा गया था कि आरोपी से 2 महीने से ज्यादा होने पर जमानत नही ली गई जबकि पीड़ित से 10 दिन के अंदर ही जमानती लिए गए जबकि पीड़ित के पास जमानत के लिए गाड़ी नही थी तो उन्होंने FD बैंक से करा कर जमानती लगाए लेकिन आरोपी गैगस्टर से जमानती क्यो नही लिए गए, जिसका जवाब एक महीना होने पर नहीं मिला है। लगता है, अच्छे दिनों में पारदर्शिता भी छुट्टियों पर चली गई है।

लेकिन खैर, हम मुद्दे पर आते हैं। इसी कमिश्नरी व्यवस्था के तहत, आगरा में पुलिस आयुक्त ने सभी विभागों के अधिकारियों के साथ एक समन्वय बैठक की। उद्देश्य था शहर की यातायात व्यवस्था को सुधारना। एक तरफ शहर की सड़कों पर अवैध कब्जों का साम्राज्य फैला हुआ है, और दूसरी तरफ पुलिस आयुक्त साहब ट्रैफिक सुधारने की बात कर रहे हैं। ऐसा लगता है, जैसे घर की छत टपक रही हो और आप कमरे में कालीन बदलने की योजना बना रहे हों।

गरीबों की सवारी पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’

बैठक में सबसे बड़ा फैसला ऑटो और ई-रिक्शा को एमजी रोड से पूरी तरह से प्रतिबंधित करने का लिया गया है। आगरा में करीब 70 हजार ऑटो और उससे भी ज्यादा ई-रिक्शा चलते हैं, जिनका कोई आधिकारिक डेटा ही नहीं है। यह प्रतिबंध एक लाख से ज्यादा लोगों से सीधे तौर पर उनका रोजगार छीन लेगा।

इस बैठक में एक बड़ा ही दिलचस्प फरमान जारी हुआ। एमजी रोड पर बच्चों को स्कूल छोड़ने जाने वाले अभिभावकों से अपील की गई है कि वे कार की जगह दोपहिया वाहन का प्रयोग करें। तो क्या अब बच्चों को स्कूल सिर्फ वही भेजेंगे जिनके पास कार या बाइक है? उन बच्चों का क्या, जिनके माता-पिता के पास न कार है और न बाइक, जो शेयरिंग ऑटो से अपने बच्चों को स्कूल भेजते हैं? क्या उन बच्चों को पढ़ाई छोड़ देनी चाहिए? और क्या सरकार ने उन माता-पिता के बारे में सोचा है, जो सुबह 9 बजे अपनी नौकरी पर जाते हैं और हर दिन अपने बच्चे को स्कूल से वापस लाने के लिए छुट्टी नहीं ले सकते? क्या उनके लिए कोई खास ‘रोजगार सुरक्षा योजना’ है?

पुलिस का दावा है कि इससे ट्रैफिक का दबाव कम होगा, और नागरिकों को सुविधा होगी। लेकिन क्या सुविधा सिर्फ उन लोगों को मिलेगी जिनके पास अपनी गाड़ी है? और ये लाखों लोग, जो अपने परिवार का पेट इन्हीं रिक्शों से पालते हैं, अब क्या करेंगे? उन्हें शहर के अंदर की सड़कों पर भेज दिया गया है, जहां सुभाष बाजार, रावतपाड़ा, किनारी बाजार, फुवारा चौक, कंगालपाड़ा, शहगंज जैसी जगहों पर व्यापारियों ने 10-10 फुट तक अवैध कब्जे कर रखे हैं। इन सड़कों पर पैदल चलने की जगह नहीं है, तो क्या इन रिक्शों को उड़ना पड़ेगा?

सवाल यह भी है, कि इस फरमान से पहले इन अवैध कब्जों को क्यों नहीं हटाया गया? क्या पुलिस पहले छोटे-मोटे लोगों को हटाकर अपनी ताकत दिखा रही है, और बड़े मगरमच्छों पर हाथ डालने से डर रही है?

कौन होगा जिम्मेदार?

और सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर इन लाखों बेरोजगारों में से 10 प्रतिशत ने भी अपने परिवार का पेट भरने के लिए अपराध की राह पकड़ ली, तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? क्या पुलिस कमिश्नरी व्यवस्था इसकी जिम्मेदारी लेगी? या हम सिर्फ यह मान लें कि ‘विकास’ की इस परिभाषा में कुछ लोगों का बलिदान तो देना ही होगा?

सरकार ने सिटी बसों की संख्या बढ़ाने, अनावश्यक खंभे हटाने, और पार्किंग की सुविधा बढ़ाने जैसे कई वादे किए हैं। लेकिन क्या ये वादे सिर्फ कागज पर ही रह जाएंगे? क्योंकि ऐसा अक्सर होता है, कि आदेश तो जारी हो जाते हैं, लेकिन उन पर अमल करने वाला कोई नहीं होता। हमें उम्मीद है कि सरकार अपने फैसलों को जमीन पर उतारेगी, और सिर्फ कागज पर ही ‘अच्छा काम’ नहीं करेगी।

क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह ‘विकास’ की नहीं, बल्कि ‘विनाश’ की कहानी होगी।

-मोहम्मद शाहिद की कलम से

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