आतंकवाद आधुनिक समय की सबसे जटिल और गंभीर चुनौतियों में से एक बन चुका है। इसने न केवल विश्वभर की सरकारों की सुरक्षा व्यवस्था को प्रभावित किया है, बल्कि समाज और मानवीय संरचना को भी गहराई तक झकझोर दिया है। लंबे समय तक यह माना जाता रहा कि आतंकवादी गतिविधियों में आर्थिक रूप से कमजोर, सामाजिक रूप से पिछड़े या अशिक्षित लोग ही शामिल होते हैं, लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक के बाद सामने आए घटनाक्रमों ने इस धारणा को पूरी तरह बदल दिया है।
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि आतंकवाद केवल गरीबी, बेरोजगारी या सामाजिक उपेक्षा की उपज नहीं है। कई मामलों में उच्च शिक्षित, संपन्न, तकनीकी रूप से दक्ष और समाज में प्रतिष्ठित स्थान रखने वाले युवक भी कट्टरपंथ की राह पकड़ते हुए आतंकी संगठनों का हिस्सा बन गए हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, आईटी विशेषज्ञ, प्रबंधन पेशेवर, विश्वविद्यालयों के छात्र, प्रोफेसर और शोधार्थी तक आतंकी गतिविधियों में संलिप्त पाए गए हैं। यह स्थिति शिक्षा को मानव विकास की अंतिम सुरक्षा-ढाल मानने वाली सोच के लिए गंभीर चुनौती है।
विशेषज्ञों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री या रोजगार हासिल करना नहीं, बल्कि विवेक, संवेदनशीलता, नैतिकता और लोकतांत्रिक चेतना का विकास भी है। जब शिक्षित युवक हिंसक और कट्टरपंथी विचारधाराओं की गिरफ्त में आ जाता है, तो शिक्षा का यह मूल उद्देश्य विफल हो जाता है। यह प्रश्न और गहरा हो जाता है कि आखिर वह कौन सी मानसिक, सामाजिक और वैचारिक प्रक्रिया है, जो एक शिक्षित व्यक्ति को तार्किक और मानवीय मूल्यों से दूर कर विनाश के मार्ग पर ले जाती है।
आधुनिक आतंकी संगठन अब केवल हथियारबंद हिंसा तक सीमित नहीं हैं। वे ड्रोन तकनीक, साइबर विशेषज्ञता, डिजिटल सुरक्षा, ऑनलाइन प्रचार, गोपनीय संचार और वित्तीय नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे में तकनीकी रूप से दक्ष और शिक्षित युवक उनके लिए उपयोगी साबित होते हैं। इंजीनियर जटिल उपकरण तैयार कर सकते हैं, डॉक्टर रासायनिक या विस्फोटक पदार्थों के प्रभाव को समझते हैं, जबकि आईटी विशेषज्ञ साइबर नेटवर्क को सुरक्षित रखने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार शिक्षा, जो समाज निर्माण का साधन होनी चाहिए, आतंकियों के लिए हथियार बन जाती है।
इतिहास में भी कई ऐसे कुख्यात आतंकियों के उदाहरण मिलते हैं जिनकी पृष्ठभूमि अत्यंत शिक्षित और संपन्न रही है। इससे यह साफ होता है कि शिक्षा और आतंकवाद के बीच की रेखा अब पहले जैसी स्पष्ट नहीं रह गई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इसके पीछे उग्र विचारधारा, पहचान का संकट, डिजिटल दुष्प्रचार, बौद्धिक अहंकार और सामाजिक ध्रुवीकरण जैसे कारण प्रमुख हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिए फैलने वाला भ्रामक और भावनात्मक प्रचार युवाओं को एकतरफा सोच की ओर धकेल देता है।
आतंकवाद का प्रभाव केवल सुरक्षा तक सीमित नहीं है। यह अर्थव्यवस्थाओं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों और सामाजिक स्थिरता को भी प्रभावित करता है। आतंकवाद के कारण विदेशी निवेश घटता है, पर्यटन प्रभावित होता है और बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचता है। साथ ही सरकारों पर सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी अभियानों का भारी वित्तीय बोझ पड़ता है। समाज में भय और असुरक्षा का माहौल बनता है, जिससे लोगों के जीवन की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक असर पड़ता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि आतंकवाद की इस नई और जटिल प्रवृत्ति का समाधान केवल पुलिस कार्रवाई या कानून व्यवस्था से संभव नहीं है। इसके लिए समाज, परिवार, शिक्षण संस्थान, मीडिया, धार्मिक संगठन और सरकार—सभी को मिलकर काम करना होगा। शिक्षा प्रणाली में नैतिक शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, बहुलतावादी सोच और सामाजिक जिम्मेदारी को शामिल करना जरूरी है। साथ ही डिजिटल साक्षरता और मानसिक स्वास्थ्य पर भी विशेष ध्यान देना होगा, ताकि युवाओं को समय रहते कट्टरपंथ की राह पर जाने से रोका जा सके।
युवा शक्ति किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूंजी होती है। यदि यही शक्ति कट्टरता और हिंसा की ओर मुड़ जाए, तो न केवल युवाओं का भविष्य बल्कि समाज और देश भी खतरे में पड़ जाता है। इसलिए आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि शिक्षा को व्यापक, मानवीय और समावेशी बनाया जाए, ताकि शिक्षित युवक अपनी प्रतिभा और ऊर्जा का उपयोग राष्ट्र-निर्माण में करें, न कि विनाश की राह पर।
-धनंजय सिंह
