धार्मिक चेतना से ओतप्रोत है श्वेतांबर जैन मुनियों की चातुर्मासिक कल्प आराधना

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आगरा: श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन ट्रस्ट, आगरा के तत्वावधान में जैन स्थानक महावीर भवन में आयोजित चातुर्मासिक कल्प आराधना की धर्मसभा में देशभर से पधारे श्रद्धालुओं ने भाग लेकर आध्यात्मिक ऊर्जा से अपनी जीवन यात्रा को समृद्ध किया। इस पावन अवसर पर गन्नौर, सूरत, हैदराबाद, गोहाना, पानीपत, पटियाला, हिसार, रोपड़, जम्मू, अम्बाला सहित अनेक नगरों से आए पुण्यवान भक्तों ने गुरुवाणी के अमृत से अपनी आत्मा को सिंचित किया।

आगम ज्ञान की गहराइयों में प्रवेश: श्री जय मुनि जी महाराज का उद्बोधन

धर्मसभा में आगम ज्ञान रत्नाकर, बहुश्रुत श्री जय मुनि जी महाराज ने जैन आगमों की त्रिविध श्रेणियों — सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम — पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि तदुभयागम सूत्र और अर्थ दोनों का समन्वय है, जो जैन दर्शन की गहराई को समझने में सहायक है। चूंकि जैन आगम प्राकृत भाषा में हैं, अतः प्राकृत का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है। उन्होंने जोर देकर कहा कि बच्चों को धर्म से जोड़ने हेतु प्राकृत भाषा का शिक्षण प्रारंभ किया जाना चाहिए।

उन्होंने प्राकृत को रहस्यमयी, गूढ़ और गंभीर भाषा बताते हुए एक प्रेरणादायक कथा के माध्यम से इसकी महत्ता को रेखांकित किया। साथ ही, उन्होंने यह भी बताया कि नई शिक्षा नीति में भारत सरकार द्वारा प्राकृत और पाली भाषाओं को विशेष प्रोत्साहन देने का संकल्प लिया गया है, जो जैन आगमों के अध्ययन को नई दिशा देगा।

संस्कार निर्माण की प्रेरणा: श्री आदीश मुनि जी का संदेश

गुरु हनुमंत, हृदय सम्राट श्री आदीश मुनि जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि गुरु दरबार में आकर यदि कोई श्रद्धालु उनके आशीर्वचनों से कुछ ग्रहण करता है, तो वह संस्कारी जीवन की ओर अग्रसर होता है। उन्होंने सुख पाने के सूत्र साझा करते हुए कहा कि जीवन में झुकना सीखना चाहिए — यही विनय है। उन्होंने स्पष्ट किया कि विनय का अर्थ है अपनी गलती को स्वीकार करना और हर आयु वर्ग के व्यक्ति के लिए यह आवश्यक गुण है।

मोक्ष मार्ग की ओर संकेत: श्री विजय मुनि जी का विवेचन

श्री विजय मुनि जी ने अपने प्रवचन में कहा कि अनेक जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही दुर्लभ मानव जन्म प्राप्त होता है। आत्मा ही कर्म करती है और उन्हें भोगती है। उन्होंने मोहनीय कर्म को मोट कर्मबंध का कारण बताते हुए उस पर विजय प्राप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया।

उन्होंने कहा, “जीव अकेला आया है, फिर मोह क्यों?” — यह प्रश्न आत्मचिंतन की ओर प्रेरित करता है। जिन शासन राग को छोड़ने की बात करता है, और यदि राग छूटता है तो द्वेष स्वतः समाप्त हो जाता है। उन्होंने स्वाध्याय, आत्म शक्ति जागरण और सम्यक दृष्टि के माध्यम से मुक्ति मार्ग की ओर बढ़ने का आह्वान किया।

त्याग और तपस्या की साधना

धर्मसभा के अंत में गुरुदेव जय मुनि जी ने “श्री शांतिनाथाय नमः” की माला का जाप कराया और आज का त्याग — शिमलामिर्च — घोषित किया। साथ ही, उन्होंने खाने-पीने में झूठा न छोड़ने की प्रेरणा दी। तपस्या के क्रम में श्रीमती सुनीता के बीस, श्रीमती नीतू के सात, और मनोज के छह उपवास की तप आराधना जारी है, जो श्रद्धा और आत्मनिष्ठा का प्रतीक है।

यह धर्मसभा न केवल आध्यात्मिक ज्ञान का स्रोत बनी, बल्कि संस्कार, विनय, और आत्म जागरण की प्रेरणा भी प्रदान कर गई। जैन समाज की यह चातुर्मासिक आराधना एक जीवंत उदाहरण है कि कैसे प्राचीन परंपराएं आज भी जीवन को दिशा देने में सक्षम हैं।

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