लो, एक साल और बीता: सामाजिक उथल-पुथल के मुहाने पर खड़ा भारत

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अक्सर कहा जाता है, ‘समय के साथ चीजें बदल जाती हैं’। और ठीक इस वाक्य के बाद कोई कह सकता है कि ‘चीजें बदलने के बाद भी नहीं बदलती हैं’। कुल जमा कर यही बातें वर्ष 2024 पर भी लागू हो जाती हैं। वर्ष 2024 में दुनिया का राजनैतिक-आर्थिक परिदृश्य बदलने के बावजूद कुल मिलाकर पहले जैसा ही रहा। जो बात दुनिया पर लागू होती है वही भारत पर भी लागू होती है। 2024 में भारत में भी काफी कुछ बदला पर कुल मिलाकर सब कुछ पहले जैसा ही रहा। पहले दुनिया को लें।

वर्ष 2024 चुनावी वर्ष था। ऐसा वर्ष था जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, रूस, भारत जैसे कई देशों में चुनाव थे। इस वर्ष के चुनाव के बाद जहां अमेरिका, यू के में विरोधी पार्टियां सत्ता में आयीं वहां रूस, भारत में पुराने लोग ही सत्ता में वापस आये। किसी ने कहा,‘जीतना आसान है परन्तु शासन करना बहुत कठिन है’। और यह बात दुनिया के हर उस शासक के लिए सच है जो चुनाव जीतकर शासन करने के लिए आया है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि जो आर्थिक संकट करीब दो दशक पहले 2007-08 में शुरू हुआ था वह किसी न किसी रूप में जारी है। कोविड संकट के बाद दुनिया भर के देशां की अर्थव्यवस्था में जो कुछ सुधार दिखाई दिया था वह पुनः सुस्ती का शिकार हो रही हैं। महंगाई, राजस्व संकट, कर्जखोरी, बेरोजगारी और बढ़ती असमानता, दुनिया को उथल-पुथल की ओर धकेल रही है।

फिलिस्तीन, यूक्रेन, सीरिया, हैती, सूडान, म्यांमार जैसे देशों में हालात साम्राज्यवादी देशों के आपसी संघर्षों की वजह से बद से बदतर होते गये हैं। फिलिस्तीन में अमेरिका के पैसों के दम पर इजरायली जियनवादी शासक नरसंहार को खुलेआम अंजाम दे रहे हैं। दुनिया भर में छात्रों-नौजवानों सहित आम लोगों ने खुलकर फिलिस्तीन की जनता का समर्थन किया और इजरायल के शासकों को लानत भेजी। अमेरिका, यूरोप के युवाओं ने उन दिनों की यादें ताजा कर दीं जब पिछली सदी में ‘वियतनाम के समर्थन में, अमेरिकी साम्राज्यवादियों के विरोध में व्यापक प्रदर्शन हुए थे।

जापान, जर्मनी और फ्रांस जैसी प्रमुख साम्राज्यवादी ताकतों की अन्य के मुकाबले स्थिति ज्यादा खराब है। अर्थव्यवस्था जहां एक ओर संकट में है वहां दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल है। तीनों ही देशों में गठबंधन सरकार पर अलग-अलग वजह से संकट छाया हुआ है। राजनैतिक पार्टियों में आपसी खींचातानी मची हुयी है। आर्थिक संकट और राजनैतिक अस्थिरता के बीच महंगाई, बेरोजगारी, कर्जखोरी आम लोगों के जीवन को मुहाल बनाये हुये है। संकट गहरा रहा है और शासक वर्ग अंधेरे में हाथ-पांव मार रहा है।

अमेरिका और यू के में विपक्षी पार्टियां सत्ता में आई हैं। यू के की लेबर पार्टी के नाम में भले ‘लेबर’ शब्द लगा हो पर असल में यह वहां के साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग की पार्टी है। यह पार्टी भी युद्धोन्मादी मंसूबों से उसी तरह लबरेज है जैसे पहले ऋषि सुनक की कंजरवेटिव पार्टी रही। दोनों ही पार्टियां घोर प्रतिक्रियावादी हैं। यही बात अमेरिका की दोनों ही प्रमुख पार्टियों (डेमोक्रेटिक व रिपब्लिक) पर लागू होती है। डोनाल्ड ट्रम्प जैसे खुलेआम बदमाशी करने वाले की जीत के बाद पूरी दुनिया में घोर प्रतिक्रियावादी, फासीवादी शासकों व सैन्य तानाशाहों को ही कुछ मजबूती मिली है।

यूक्रेन को लेकर रूसी व पश्चिमी साम्राज्यवादियों के बीच चल रहे युद्ध को तीन वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। कोई समझौता यूक्रेन के बंटवारे पर ही जाकर हो सकता है। इस युद्ध की कीमत जहां यूक्रेन सहित यूरोप व कई अन्य देशों के मेहनतकश उठा रहे हैं वहां अमेरिकी व रूसी साम्राज्यवादी इस युद्ध से मुनाफे बटोर रहे हैं। यूक्रेन के भ्रष्ट शासक व फौजी जनरल भी इसमें पीछे नहीं हैं। वर्ष 2024 बीत गया पर युद्ध समाप्त नहीं हुआ।

सबसे नयी साम्राज्यवादी ताकत चीन विश्व राजनीति में अच्छा खासा दखल देने लगा है। और पश्चिमी साम्राज्यवादी चीन के बढ़ते रसूख से अपने लिए खतरा मानकर उसकी आर्थिक-राजनैतिक सैनिक घेराबंदी करने में लगे हैं। बीते वर्ष चीनी साम्राज्यवादी रूस-यूक्रेन युद्ध हो या फिर इजरायल का फिलिस्तीन-लेबनान-सीरिया-ईरान-यमन के साथ चल रहे संघर्ष का मामला हो हर जगह से मुनाफा पीटते रहे हैं। चीन भले ही फिलिस्तीन राष्ट्र का समर्थक हो परन्तु उसे इजरायल के भीतर युद्ध के चलते हुए नुकसान को ठीक करने में चीनी कम्पनियों व मजदूरों को लगाने से कोई गुरेज नहीं है। चीनी साम्राज्यवादी उतने ही धूर्त हैं जितने अमेरिकी साम्राज्यवादी। आने वाले दिनों में ये आपस में बार-बार उलझेंगे।

साम्राज्यवाद के कारण से भी शोषित-उत्पीड़ित तीसरी दुनिया के देशों में भी कम उथल-पुथल नहीं है। बांग्लादेश में तो शेख हसीना की सरकार अमेरिकी दबाव में ताश के पत्तों की तरह बिखर गयी। सीरिया में असद को रूस भाग जाना पड़ा। पाकिस्तान में गहराते राजनैतिक-आर्थिक संकट के बीच उन लोगों ने मिलकर सरकार बना ली जो कल तक एक-दूसरे के घोर विरोधी थे। दक्षिण कोरिया में राष्ट्रपति यून सुक योल को अपने मार्शल ला लगाने के फैसले को भारी जन दबाव के चलते चंद घण्टों में ही वापस लेना पड़ा। कीनिया में सरकार को अपने कई-कई फैसले जनदबाव के कारण वापस लेने पड़े। अफ्रीका महाद्वीप के कई-कई देशों में साम्राज्यवादी देशों खासकर फ्रांस के हस्तक्षेप के खिलाफ जनाक्रोश फूटता रहा। कुल मिलाकर देखें तो यह बात फिर-फिर चरितार्थ हुयी कि जहां दमन है वहां प्रतिरोध है। चार्ल्स डीकिन्स के शब्दों में कहें तो यह वर्ष अगर दमन का वर्ष था तो यह वर्ष प्रतिरोध का भी वर्ष था। यह वर्ष नेतान्याहू, बाइडेन, पुतिन, शेख हसीना, सुक योल का वर्ष था तो यह वर्ष अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, एशिया, आस्ट्रेलिया महाद्वीप के युवाओं, मजदूरों, मेहनतकशों सहित आम जनों का भी वर्ष था।

जहां तक हमारे देश का सवाल है मोदी की वापसी आम चुनाव में कुछ ऐसे ढंग से हुयी मानो वे सत्ता में जीतकर नहीं बल्कि हार कर आये हों और विपक्षी पार्टी खासकर कांग्रेस अपनी चुनावी हार को ऐसे मना रही थी जैसे कि वह जीत का जश्न हो। संसद में मोदी की चाल से ज्यादा राहुल गांधी की चाल में ठसक थी।

मोदी की पार्टी बहुमत के आंकड़े से काफी दूर रह गयी और उसे सत्ता के लिए ऐसी बैसाखियों की जरूरत पड़ी जिन बैसाखियों को उसने कहीं छोड़ दिया था। आम चुनाव में महंगाई, बेरोजगारी, डेमोक्रेसी जैसे मुद्दों की वापसी हुयी और भाजपा-संघ का हिन्दू फासीवादी एजेण्डा पूरे तौर पर परवान नहीं चढ़ सका। भारत के पूंजीवादी-एकाधिकारी अम्बानी-अडाणी-टाटा जैसे घरानों ने मोदी की वापसी के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया था। महाराष्ट्र, हरियाणा में भी भाजपा की वापसी लोकप्रिय मान्यता के खिलाफ थी। ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ का संदेह का बादल भाजपा की चुनावी जीत के ऊपर मंडराता रहा। जम्मू-कश्मीर व झारखण्ड में भाजपा की चुनावी हार उसकी महाराष्ट्र-हरियाणा की जीत से ज्यादा बड़ी थी। इस बीच एकाधिकारी पूंजी द्वारा नियंत्रित मीडिया मोदी की जितनी प्रशंसा के गीत गाता रहा उतना ही वह अपनी विश्वसनीयता खोता गया है।

चुनावी साल बीतने के बाद भारत लगभग वहीं खड़ा है जहां वह पिछले वर्ष खड़ा था। मणिपुर जलता रहा और हिन्दू फासीवादियों ने पूरे देश में अलग-अलग मुद्दों के जरिये देश में मुसलमानों के प्रति घृणा, वैमनस्य की आग को भड़काने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस सच्चाई के बावजूद कि आम चुनाव में हिन्दू फासीवादियों को जीत बहुत कठिनाई से मिली है उन्होंने अपने फासीवादी कुकृत्यों को ही अपनी जीत का मूल सूत्र बनाया हुआ है। योगी, हिमंत विस्वा सरमा जैसे कई-कई छोटे-छोटे मोदी अपने राजनैतिक कैरियर को उसी लाइन पर बढ़ा रहे हैं जिस पर चलकर मोदी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे।

पूरी दुनिया की तरह भारत भी सामाजिक उथल-पुथल के मुहाने पर खड़ा है। कभी भी भारत में वैसे हालात पैदा हो सकते हैं जैसे किसी रूप में पाकिस्तान तो किसी अन्य रूप में बांग्लादेश तो किसी अन्य रूप में दक्षिण कोरिया में इस वर्ष खड़े हो गये थे। दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति की तरह का ‘‘एडवेंचर’’ करने के गुण और कला में मोदी भी कम माहिर नहीं हैं।

दुनिया सहित भारत के मजदूरों-मेहनतकशों, शोषितों-उत्पीड़ितों का एक और साल पूंजीवादी समाज की सडांध के बीच बीत गया। यह सडांध साल दर साल बढ़ती जा रही है। मजदूरों-मेहनतकशों का सांस लेना दूभर से दूभर होता जा रहा है परन्तु अभी भी वह गफलत का शिकार है। मोदी, पुतिन जैसे भले ही चुनाव जीत जा रहे हों परन्तु समय यह साबित कर रहा है कि इनके लिए शासन करना हर बीते दिन के साथ और कठिन होता जा रहा है। और इसका एक अर्थ यह भी है कि उनके शासन को मेहनतकश जनता के द्वारा अस्वीकार किया जाना बढ़ रहा है। जितना शासकों का शासन करना मुश्किल है उतना ही अभी यह सोचना मुश्किल है कि किसी दिन मजदूर-मेहनतकश शासन अपने हाथ में ले लेंगे। यही इतिहास की वस्तुगत गति व सच्चाई है। परन्तु अभी यह भावुक कल्पना ही ज्यादा समझी जाती है।

साभार सहित: नागरिक अखबार


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