आगरा में एक अजीबोगरीब फरमान जारी हुआ है, जिसने आम आदमी की जिंदगी में एक और मुसीबत बढ़ा दी है। नगर निगम अब घरों में पलने वाले कुत्तों का हिसाब-किताब करने निकला है। जिन लोगों ने अपने घरों में बेजुबान जानवरों को पनाह दी है, अब उन्हें भी ‘सरकारी बाबूओं’ के सामने हाजिरी देनी होगी। यह हाजिरी सिर्फ हाजिरी नहीं है, बल्कि इसके लिए मोटी रकम भी चुकानी होगी। पालतू जानवरों का रजिस्ट्रेशन करवाना अब अनिवार्य कर दिया गया है।
क्या यह सब सिर्फ रैबीज जैसी बीमारियों को रोकने के लिए हो रहा है, या फिर यह सरकार की जेब भरने का एक और बहाना है? यह वही सवाल है जो बार-बार लोगों के जेहन में घूम रहा है।
पैसों का खेल या जिम्मेदारी की बात?
आगरा के नगर निगम ने एक नया अभियान छेड़ा है। इस अभियान के तहत, शहर में पलने वाले पालतू कुत्तों का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है।
फिलहाल तो शहर में हजारों कुत्ते हैं, लेकिन रजिस्ट्रेशन सिर्फ 552 का हुआ है। अब इसे क्या कहेंगे? लोगों की लापरवाही, या फिर नगर निगम की नाकामयाबी?
जवाब में, नगर निगम के अधिकारी कहते हैं कि यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि आगरा एक ‘रैबीज-फ्री’ और ‘पेट-फ्रेंडली’ शहर बन सके। लेकिन क्या ‘पेट-फ्रेंडली’ शहर की परिभाषा सिर्फ जुर्माना और पैसों की उगाही तक सीमित है?
शहर के पशु कल्याण अधिकारी डॉ. अजय कुमार सिंह का कहना है कि रजिस्ट्रेशन से कुत्तों का रिकॉर्ड बनेगा, जिससे टीकाकरण और आपात स्थिति में पहचान जैसे काम आसान हो जाएंगे। नगर निगम के आयुक्त अंकित खंडेलवाल भी यही बात दोहराते हैं। वे कहते हैं कि “पालतू जानवर पालना आपकी आजादी है, लेकिन उनकी जिम्मेदारी निभाना भी जरूरी है।”
लेकिन सवाल यह है कि यह जिम्मेदारी सिर्फ जुर्माने और रजिस्ट्रेशन फीस तक ही क्यों सीमित है? अगर सरकार इतनी ही चिंतित है, तो रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया मुफ्त क्यों नहीं की जा सकती?
घर-घर तलाशी और 2500 का जुर्माना: क्या यह लोकतंत्र है?
नगर निगम ने एक और तुगलकी फरमान जारी किया है। अब शहर में एक विशेष जांच अभियान चलाया जाएगा। इसका मतलब है कि नगर निगम की टीम आपके घरों में घुसकर यह देखेगी कि आपने कोई कुत्ता पाला है या नहीं।
और अगर आपने कुत्ता पाला है, और उसका रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया है, तो सीधे 2500 रुपए तक का जुर्माना लगेगा। इसके साथ ही, कुत्ते को जब्त कर लिया जाएगा, और उसका ट्रांसपोर्ट व खाने-पीने का खर्च भी मालिक से वसूला जाएगा। यह तो सरासर गुंडागर्दी है! क्या एक इंसान को अपने ही घर में जानवर पालने के लिए अब सरकार से इजाजत लेनी पड़ेगी?
क्या यह सच में एक लोकतांत्रिक देश है, जहां लोग अपने घरों में कैसे रहेंगे, यह भी सरकार तय करेगी?
टैक्स के बाद भी धोखा यह कैसा विकास?
लोग दिन-रात मेहनत करके पैसा कमाते हैं। उस कमाई में से सरकार को दर्जनों तरह के टैक्स देते हैं। उन टैक्सों के बदले में उन्हें क्या मिलता है? खस्ताहाल सड़कें, गंदगी के ढेर, और टूटी हुई सीवर लाइनें। और अब, जब कोई इंसान अपने घर में एक जानवर पालता है, अपनी खुशी के लिए, तो उसे भी पैसे चुकाने पड़ रहे हैं।
अगर नगर निगम सच में ‘पेट-फ्रेंडली’ शहर बनाना चाहता है, तो उसे पहले सुविधाएं देनी चाहिए। पार्क, वॉकिंग एरिया, और बेहतर पशु चिकित्सा सुविधाएं, ये सब कहां हैं? क्या ये सब सिर्फ कागजों पर लिखी बातें हैं?
अगर रजिस्ट्रेशन जरूरी है, तो इसे मुफ्त क्यों नहीं किया जा सकता? क्या सरकार के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह इस छोटी सी सुविधा को मुफ्त में दे सके? या फिर यह सिर्फ एक और तरीका है, लोगों की जेबों से पैसा निकालने का?
यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब कोई नहीं देना चाहता। क्योंकि शायद जवाब देना जरूरी नहीं है। जरूरी तो सिर्फ पैसा है, जो जनता की जेब से निकले, और सरकार की तिजोरी में पहुंचे।
मोहम्मद शाहिद की कलम से