भारत में लड़कियों की स्कूली शिक्षा की कहानी आज़ादी के बाद के विकास‑वृत्तांत की सबसे जटिल और मार्मिक कड़ी है। संविधान का अनुच्छेद 21A हर बच्चे को 6 से 14 वर्ष तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है, पर ज़मीनी तस्वीर बताती है कि जैसे‑जैसे कक्षा बढ़ती है, लड़कियों की संख्या कम होती जाती है और माध्यमिक‑उच्च माध्यमिक स्तर पर पहुँचते‑पहुँचते बड़ी संख्या में बेटियाँ स्कूल से बाहर हो चुकी होती हैं। यह केवल शैक्षणिक ढाँचे की विफलता नहीं, बल्कि गहरे बैठे सामाजिक पूर्वाग्रह, पितृसत्ता, आर्थिक अभाव और राज्य की अधूरी प्रतिबद्धताओं की संयुक्त देन है।
सबसे पहले बात स्कूलों की बुनियादी सुविधाओं की, जो लड़कियों के लिए शिक्षा के अधिकार और शिक्षा की वास्तविक उपलब्धता के बीच की सबसे कठोर दीवार बनकर खड़ी हैं। आज भी अनेक सरकारी स्कूलों में अलग, सुरक्षित और कार्यशील शौचालयों की कमी है; जहाँ शौचालय बने भी हैं, वहाँ साफ‑सफाई, पानी और रखरखाव की स्थिति अक्सर बेहद खराब रहती है। किशोरावस्था में प्रवेश करने वाली बालिकाओं के लिए मासिक धर्म के दौरान स्वच्छ और सम्मानजनक व्यवस्था जीवन की बुनियादी ज़रूरत है; लेकिन जब स्कूल इस ज़रूरत को नज़रअंदाज़ करते हैं, तो परिवार के लिए सबसे आसान विकल्प लड़की को घर बैठा देना होता है। स्वच्छ पेयजल, सेनेटरी नैपकिन की उपलब्धता, कचरा निस्तारण जैसी बातें कागज़ी योजना‑दस्तावेज़ों में चाहे जितनी आकर्षक दिखें, ज़मीन पर उनकी कमी लड़कियों के हौसले को बार‑बार तोड़ती है। यह वही उम्र है जहाँ शिक्षा आत्मनिर्भरता और सशक्तिकरण का रास्ता खोल सकती है, लेकिन अवसंरचना की कमी उसे ‘ड्रॉपआउट’ के आँकड़ों में बदल देती है।
दूसरा बड़ा कारक स्कूल तक पहुँच का है, जिसमें दूरी और सुरक्षा दोनों शामिल हैं। ग्रामीण इलाकों में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालय अक्सर गाँव से कई किलोमीटर दूर स्थित होते हैं। लड़के किसी तरह साइकिल या पैदल यह दूरी तय कर लेते हैं, लेकिन लड़कियों के मामले में हर किमी के साथ असुरक्षा, झिझक और जोखिम भी बढ़ जाता है। रास्ते में छेड़खानी, उत्पीड़न, सुनसान सड़कें, अपर्याप्त सार्वजनिक परिवहन और देर से घर लौटने का डर, माता‑पिता के मन में यह धारणा गहरी कर देते हैं कि “इतनी दूर भेजना सुरक्षित नहीं।” जहाँ‑जहाँ साइकिल वितरण, छात्राओं के लिए सुरक्षित बस‑सेवा, या क्लस्टर‑स्कूल जैसा मॉडल ईमानदारी से लागू हुआ, वहाँ यह साफ़ दिखा कि परिवहन‑सुरक्षा की समस्या हल होते ही लड़कियों की उपस्थिति, ट्रांज़िशन रेट और बोर्ड तक बने रहने के आँकड़े बेहतर हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सही नीतिगत हस्तक्षेप से “दूरी” नाम की बाधा को शिक्षा का रास्ता रोके बिना भी संभाला जा सकता है।
तीसरी वजह घर की चारदीवारी के भीतर छिपी है—घरेलू काम और देखभाल की ज़िम्मेदारियाँ। भारतीय समाज की पितृसत्तात्मक संरचना में बेटा अक्सर “भविष्य का कमाने वाला” और बेटी “परिवार की ज़िम्मेदारी” मानी जाती है। गरीब और निम्न‑मध्यवर्गीय परिवारों में माँ के साथ खाना बनाना, बर्तन‑कपड़े धोना, छोटे भाई‑बहनों की देखभाल करना, पानी लाना, खेत या दुकान में मदद करना—इन सभी कामों का सबसे आसान विकल्प लड़की ही बनती है। उसके स्कूल‑समय को “लचीला” समझा जाता है; जैसे ही घर का बोझ बढ़ता है, सबसे पहले उसकी पढ़ाई कटती है। सर्वेक्षण बार‑बार दिखाते हैं कि बहुत‑सी लड़कियाँ “पढ़ाई में रुचि नहीं” की वजह से नहीं, बल्कि “घर के काम” और “परिवारिक ज़िम्मेदारी” के कारण स्कूल छोड़ती हैं, लेकिन डेटा में इसे अक्सर गलत ढंग से दर्ज कर दिया जाता है। यह अदृश्य श्रम, जो घर और समाज के पहियों को चलाता है, लड़की के अधिकारों और भविष्य के रास्ते में सबसे बड़े रोड‑ब्लॉक में बदल जाता है।
चौथा निर्णायक तत्व है बाल विवाह और विवाह‑केंद्रित सामाजिक मानसिकता। आज भी अनेक समुदायों में यह मान्यता जीवित है कि लड़की की “इज़्ज़त” और “भविष्य” का असली उपाय उसे जल्दी ब्याह देना है, न कि लंबी शिक्षा देना। ज़्यादा पढ़ाई को कई बार “बिगड़ने”, “पति न मानने” या “शादी देर से होने” के ख़तरे के रूप में देखा जाता है। राष्ट्रीय स्तर के सर्वे साफ़ दिखाते हैं कि अशिक्षित या कम पढ़ी‑लिखी लड़कियों में 18 वर्ष से पहले विवाह की संभावना कहीं अधिक होती है, जबकि उच्च शिक्षा पाने वाली लड़कियों में यह अनुपात बहुत कम है। यह दुष्चक्र बेहद क्रूर है—कम शिक्षा बाल विवाह को जन्म देती है और बाल विवाह आगे की शिक्षा की संभावना लगभग समाप्त कर देता है। शादी के बाद ससुराल की ज़िम्मेदारियाँ, जल्दी गर्भधारण का सामाजिक दबाव और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम, लड़की को स्कूल से स्थायी रूप से बाहर कर देते हैं।
इन सबके ऊपर आर्थिक बाधाएँ एक तरह से “सील” का काम करती हैं। भले ही सरकारी स्कूलों में फीस नाममात्र की हो या न हो, लेकिन यूनिफॉर्म, जूते‑चप्पल, किताबें, कॉपियाँ, परीक्षा शुल्क, ट्यूशन, परिवहन—इन अप्रत्यक्ष खर्चों का बोझ गरीब परिवारों के लिए बहुत भारी होता है। ऐसे परिवारों की आर्थिक गणित अक्सर बेटे के पक्ष में झुक जाती है; उन्हें लगता है कि लड़के की शिक्षा पर निवेश का प्रतिफल नौकरी या कमाई के रूप में मिलेगा, जबकि लड़की की पढ़ाई “निवेश से अधिक दान” जैसी समझी जाती है। यह सोच कई बार लड़कियों को बिल्कुल शुरुआती कक्षाओं से बाहर धकेल देती है, तो कई बार आठवीं, दसवीं या बारहवीं के मोड़ पर उनकी शिक्षा का धागा टूट जाता है।
इन कारणों का असर भारत के सार्वभौमिक विद्यालयीकरण के लक्ष्य पर गहरा और दूरगामी है। सबसे पहले तो यह संकट सतत विकास लक्ष्य 4 (सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा) और लक्ष्य 5 (लैंगिक समानता) की दिशा में भारत की प्रगति को बाधित करता है। जब माध्यमिक स्तर पर ही लड़कियों की बड़ी संख्या स्कूल से बाहर हो जाती है, तो साक्षरता, नामांकन और परीक्षा‑उत्तीर्णता के आँकड़ों में स्थायी लैंगिक खाई बन जाती है। “सार्वभौमिक” शब्द केवल प्रवेश‑सूची में दिखता है, लेकिन क्लासरूम और परीक्षा‑परिणाम में नहीं।
दूसरा असर अंतरपीढ़ी गरीबी पर पड़ता है। शोध लगातार दिखाते हैं कि शिक्षित माँ अपने बच्चों की सेहत, पोषण, टीकाकरण और शिक्षा में अधिक सजग और निवेशकारी होती है। जब लड़की स्वयं शिक्षा से वंचित रह जाती है, तो उसके लिए अगली पीढ़ी को शिक्षा‑केंद्रित जीवन देना बहुत कठिन हो जाता है। इस तरह एक पीढ़ी का ड्रॉपआउट, अगली पीढ़ी के अवसरों को भी सीमित कर देता है और गरीबी की जंजीरें टूटने के बजाय और मजबूत हो जाती हैं।
तीसरा बड़ा असर आर्थिक विकास और उत्पादकता पर दिखता है। यदि महिलाओं की श्रम‑बल भागीदारी, शिक्षा और कौशल के सहारे, पुरुषों के बराबर या उसके करीब पहुँच सके तो भारत की GDP में उल्लेखनीय वृद्धि संभव है; लेकिन जब लाखों लड़कियाँ माध्यमिक स्तर से बाहर हो जाती हैं, तो यह संभावित मानव‑पूँजी कभी विकसित ही नहीं हो पाती। देश की आधी आबादी “हाफ‑टाइम” से पहले ही खेल से बाहर कर दी जाती है, और आर्थिक विकास अपनी प्राकृतिक ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाता।
चौथा असर सामाजिक‑राजनीतिक सशक्तिकरण पर पड़ता है। शिक्षा सिर्फ रोज़गार का माध्यम नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक नागरिकता का सबसे बुनियादी औज़ार है। पढ़ी‑लिखी लड़की स्वास्थ्य, प्रजनन, रोज़गार, बैंकिंग, डिजिटल तकनीक और मतदान जैसे निर्णयों में अधिक आत्मविश्वास से भाग लेती है। जब वह स्कूल छोड़ने पर मजबूर होती है, तो उसकी आवाज़ कमज़ोर हो जाती है, वह फैसलों की निर्माता की बजाय केवल प्रभावित होने वाली बनकर रह जाती है। स्थानीय निकायों में महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को वास्तविक शक्ति में बदलने के लिए जरूरी है कि गांव‑मोहल्ले की सामान्य लड़कियाँ भी कम से कम माध्यमिक स्तर तक की ठोस शिक्षा प्राप्त कर सकें।
इन नकारात्मक प्रभावों को संतुलित करने के लिए नीतियों को केवल कानूनों तक सीमित नहीं, बल्कि ज़मीन पर संवेदनशील बनाना होगा। सशर्त नकद अंतरण, छात्रवृत्ति, साइकिल और परिवहन योजनाएँ, सुरक्षित और लैंगिक‑समान स्कूल अवसंरचना, बाल विवाह के खिलाफ सख्त और ईमानदार अमल, समुदाय‑आधारित जागरूकता अभियान, और ओपन‑स्कूलिंग व डिजिटल शिक्षा के जरिए “दूसरा मौका”—ये सभी कदम तभी असरदार होंगे जब उनकी योजना और क्रियान्वयन के केंद्र में “लड़की” हो, न कि केवल “छात्र” का कोई लिंग‑निरपेक्ष, अमूर्त चित्र। लड़कियों का स्कूल से बाहर होना भारत की कहानी में एक अधूरा अध्याय नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतावनी है जो बताती है कि जब तक हर बेटी बिना डर और बाधा के कम से कम माध्यमिक शिक्षा पूरी न कर सके, तब तक “शिक्षित भारत” का सपना आधा ही रहेगा।
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