दवाओं की मंडी में ज़िंदगी का सौदा: आगरा का नया मॉडल या एक नया जुमला?

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आगरा, वो शहर जहाँ ताज की खूबसूरती दुनिया को खींच लाती है, आजकल एक और ‘ताज’ के लिए सुर्खियों में है। ये ताज है नकली दवाओं के कारोबार का, जो न जाने कितने लोगों की जान से खिलवाड़ कर रहा है। हाल ही में आगरा में नकली दवाओं के सिंडिकेट पर हुई कार्रवाई ने एक उम्मीद जगाई है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ एक दिखावा है, या वाकई व्यवस्था में कोई बदलाव आएगा? पुलिस, प्रशासन और अब केंद्र सरकार की एजेंसियों की संयुक्त कार्रवाई की बात हो रही है। पर क्या ये पहली बार है? और अगर नही, तो पिछली बार क्या हुआ था?

आगरा में नकली दवा माफियाओं पर हुई कार्रवाई के बाद अब प्रदेश और केंद्र की एजेंसियों की नजरें गड़ गई हैं। पूर्व डीजीपी गुजरात के नेतृत्व में कलेक्ट्रेट सभागार में एक वर्कशॉप आयोजित की गई, जिसमें लगभग 15 विभागों के अधिकारियों ने हिस्सा लिया। इसका उद्देश्य था नकली दवाओं के सिंडिकेट की जड़ें खोदना और पूरी ‘चेन’ को ध्वस्त करना। जिला मजिस्ट्रेट अरविंद मलप्पा बंगारी ने साफ कर दिया है कि अब सूचना देने वाले को किसी भी विभाग में, यहाँ तक कि पुलिस हेल्पलाइन पर भी शिकायत दर्ज कराने की सुविधा मिलेगी।

पुलिस कमिश्नर ने तो नकली दवा माफियाओं को पकड़ने के लिए एक विशेष जांच दल (SIT) का गठन भी कर दिया है, जिसका नेतृत्व एडी डीसीपी साइबर एक्सपर्ट आदित्य सिंह करेंगे। यह SIT टॉप 10 दवा माफियाओं की लिस्ट तैयार करेगी, उनकी अवैध संपत्ति का ब्यौरा जुटाएगी, और यहाँ तक कि पुराने मामलों की भी छानबीन करेगी ताकि नए-पुराने लिंक्स का पता लगाया जा सके।

इस वर्कशॉप में पूर्व डीजीपी गुजरात केशव कुमार ने बताया कि यह केवल फूड एंड ड्रग्स एक्ट का मामला नहीं है। इसमें फौजदारी (criminality), धोखाधड़ी (cheating), आईटी एक्ट (IT Act), जीएसटी (GST) और इनकम टैक्स (Income Tax) जैसे गंभीर पहलू शामिल हैं।

इसका मतलब ये हुआ कि यह सिर्फ दवाओं के मिलावट का मामला नहीं, बल्कि एक संगठित अपराध है, जिसमें आर्थिक अपराधों की भी परतें जुड़ी हैं। नकली क्यूआर कोड बनाना आईटी एक्ट के दायरे में आता है, और इसी के तहत कार्रवाई की योजना है।

गुजरात के पूर्व डीजीपी ने लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया में भी बदलाव का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा कि अब पुलिस से क्लीयरेंस लिए बिना किसी को लाइसेंस नहीं मिलना चाहिए। साथ ही, जीआई टैगिंग (GI tagging) जैसी तकनीक का उपयोग कर यह सुनिश्चित किया जाएगा कि एक बार रद्द लाइसेंस वाले पते पर दोबारा नया लाइसेंस न बन पाए।

ये सभी कदम एक समेकित (integrated) और बहु-आयामी (multi-dimensional) दृष्टिकोण की ओर इशारा करते हैं। ब्लैक मनी के खेल को देखते हुए ईडी (Enforcement Directorate) की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी, और टैक्स चोरी के लिए जीएसटी और इनकम टैक्स विभाग को भी शामिल किया जाएगा।

ये सारी बातें सुनकर मन में कई सवाल आते हैं। जब नकली दवाओं का कारोबार इतना बड़ा हो चुका है कि इसमें आईटी एक्ट, जीएसटी, ईडी और बिजली विभाग तक को शामिल करना पड़ रहा है, तो क्यो हमारी मौजूदा व्यवस्था इस खतरे को समझने में इतनी देर से जागी? क्या पहले के ड्रग्स विभाग और पुलिस के पास इन अपराधियों को रोकने की ताकत नहीं थी, या नीयत? जब लाइसेंस फर्जी थे, दुकानें फर्जी थीं, तो क्या हमारे अधिकारियों ने कभी इन पर ध्यान देने की कोशिश नहीं की? या फिर, ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि अब एक पूर्व डीजीपी (former DGP) सामने आए हैं, जिन्होंने बताया कि इस खेल में और भी कई खिलाड़ी हैं? क्या हमारी अपनी एजेंसियों को यह सब पता नहीं था? या फिर यह सिर्फ एक और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है, जिसके बाद सब कुछ फिर वैसा ही हो जाएगा?

क्या ये सब मिलकर, एक साथ काम करने का वादा, सिर्फ एक ‘जुमला’ बनकर रह जाएगा, जैसा कि अक्सर होता है?

आगरा में नकली दवा कारोबारियों पर हुई इस कार्रवाई ने एक गंभीर संदेश दिया है: यह सिर्फ एक शहर का नहीं, बल्कि पूरे देश का मामला है। अगर प्रशासन और पुलिस वास्तव में मिलकर काम करते हैं और इस पूरे सिंडिकेट की जड़ें उखाड़ फेंकते हैं, तो यह एक ‘आगरा मॉडल’ बन सकता है, जिसका अनुकरण पूरे देश में किया जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जब राजनीतिक इच्छाशक्ति (political will) और प्रशासनिक ईमानदारी (administrative integrity) दोनों का समावेश हो। सिर्फ SIT बनाने से या कागजी कार्रवाई से कुछ नहीं होगा। जब तक असली माफियाओं पर कठोर कार्रवाई नहीं होती, तब तक ये नकली दवाएं बेची जाती रहेंगी, और हर साल न जाने कितने निर्दोष लोग इनकी भेंट चढ़ते रहेंगे। यह एक जंग है, जो हमें जीतनी ही होगी, क्योंकि बात सिर्फ पैसे की नहीं, बल्कि लाखों जिंदगियों की है।

-मोहम्मद शाहिद की कलम से

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