संदेशखाली मामले में संसद की प्रिविलेज कमेटी यानी विशेषाधिकार समिति की कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है. इससे ममता बनर्जी सरकार को राहत मिली है, तो अब जानते हैं कि क्या होती है ये प्रिविलेज कमेटी.
राज्यसभा और लोकसभा, दोनों में ही प्रिविलेज कमेटी होती है. इसका गठन लोकसभा अध्यक्ष या सभापति करते हैं. समिति में दलों की संख्या के आधार पर उन्हें प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलता है. लोकसभा की प्रिविलेज कमेटी में 15 सदस्य और राज्यसभा की विशेषाधिकार समिति में 10 मेम्बर्स होते हैं. लोकसभा अध्यक्ष यहां की समिति प्रमुख होते हैं. वहीं, राज्यसभा विशेषाधिकार समिति के प्रमुख उपसभापति होते हैं. सदन में दलों की संख्या के आधार पर ही वो समिति के सदस्यों को नामित करते हैं.
क्या हैं समिति के अधिकार और कैसे काम करती है?
जब भी सदन में किसी सांसद के विशेषाधिकार का हनन होता है या इसके उल्लंघन का मामला सामने आता है तो उसकी जांच इसी कमेटी को सौंपी जाती है. संसदीय विशेषाधिकार उन अधिकारों को कहते हैं जो दोनों सदनों के सदस्य को मिलते हैं. इन अधिकारों का मकसद सदन, समिति और सदस्यों को उनके कर्तव्य को पूरा करने में मदद करना. ये संसदीय विशेषाधिकार संसद की गरिमा, स्वतंत्रता और स्वायत्तता की सुरक्षा करते हैं.
सदस्यों से जुड़े मामले इस कमेटी तक पहुंचने के बाद यह पूरी स्थिति को समझती है. कड़े कदम उठाती है. अगर कोई सदस्य विशेषाधिकार का उल्लंघन करता है तो उसे दंडित किया जाए या नहीं, यह सबकुछ समिति तय करती है. समिति उसकी सदस्यता रद करने से लेकर उसे जेल भेजने की सिफारिश भी कर सकती है. कमेटी अपनी रिपोर्ट तैयार करके अध्यक्ष को सौंप देती है.
संसद में किसी भी सदस्य के विशेष अधिकारों का हनन होता है या वो किसी तरह से आहत होते हैं तो इसे उनके विशेषाधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जाता है. सदन के आदेश को न मानना, समिति या फिर इसके सदस्यों के खिलाफ अपमानित करने वाले लेख लिखना भी इनके विशेष अधिकारों का उल्लंघन करना ही है. साथ ही सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाना भी इसका उल्लंघन है.
कब-कब चर्चा में रही कमेटी?
संसद की विशेषाधिकार समिति कई बार चर्चा में रही है. पश्चिम बंगाल के मामले से पहले भाजपा नेता रमेश बिधूड़ी और बीएसपी सांसद दानिश अली का मामला इस समिति तक पहुंचा था.इससे पहले 1967, 1983, और 2008 में भी कई ऐसे मामले आए जो विशेषाधिकार समिति तक पहुंचे.
1967 में दो लोगों में दर्शक दीर्घा में पर्चे फेंकने का मामला सामने आया. 1983 में चप्पल फेंकने और नारे लगाने का मामला उठा. वहीं 2008 में एक ऊर्दू वीकली के संपादक के जुड़ा मामला सामने आया था. उसके संपादक ने राज्यसभा के सभापति को कायर बताते हुए टिप्पणी की थी.
– एजेंसी