आगरा: कल की बारिश ने शहर की धूल को भले ही कुछ देर के लिए शांत कर दिया हो, लेकिन आगरा के नकली दवा कारोबार पर हुई छापेमारी ने एक ऐसी धूल उड़ाई है, जिसकी परतें इतनी मोटी हैं कि साफ़-साफ़ कुछ दिख नहीं रहा। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामजीलाल सुमन ने इसी धूल में छिपे सच को बाहर निकालने की कोशिश की है, और उनकी आवाज़ में वो दर्द है जो शायद इस देश का हर नागरिक महसूस कर रहा है, लेकिन बोल नहीं पा रहा।
भारत में नकली दवाओं का कारोबार एक ऐसा कोढ़ बन चुका है, जिसका इलाज फिलहाल किसी के पास नहीं दिख रहा। हर रोज हम खबरें पढ़ते हैं, छापेमारी की, गिरफ्तारी की, लेकिन यह पूरा खेल इतना बड़ा है कि हमारी चिंता को सिर्फ एक हेडलाइन तक सीमित करके छोड़ दिया जाता है। एक तरफ समाजवादी पार्टी के नेता रामजीलाल सुमन सरकार पर हमलावर हैं, तो दूसरी तरफ सरकारी आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं कि बीमारी गहरी है। सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ राजनीति का मुद्दा है, या यह हमारी और आपके जीवन से जुड़ा एक गंभीर खतरा है, जिसकी तरफ हम आंखें बंद करके बैठे हैं?
सांसद रामजीलाल सुमन ने अपने घर पर पत्रकारों को बुलाया और एक ऐसा आईना दिखाया, जिसमें इस देश की बदसूरत हकीकत साफ झलक रही थी। उन्होंने बताया कि WHO की रिपोर्ट कहती है कि पूरी दुनिया में नकली और अवैध दवाओं का कारोबार कोई छोटा-मोटा नहीं, बल्कि 17 लाख करोड़ का है और इसमें भारत नंबर-1 है।
वाह! क्या तरक्की है! जब भी कोई रिपोर्ट आती है, तो हम अपनी तरक्की पर इतराते हैं। कभी अर्थव्यवस्था में, कभी जनसंख्या में, लेकिन नकली दवाओं के इस काले धंधे में नंबर-1 होने पर हम क्यों चुप हैं? क्या यह हमारी तरक्की का नया पैमाना है? या फिर ये वो तरक्की है, जिसका सीधा फायदा उस सत्ता को मिल रहा है, जो देशवासियों को उनके हाल पर छोड़ कर बैठी है?
रामजीलाल सुमन ने जो आंकड़े दिए, वो डराने वाले हैं। 2019 से 2025 तक, लाखों सैंपल लिए गए, लेकिन उनमें से सिर्फ कुछ हज़ार ही सही पाए गए। इसका मतलब क्या है? क्या इसका मतलब यह है कि हम जो दवा खा रहे हैं, वह जहर है? और इस जहर को खुलेआम बेचने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
सांसद ने सीधे-सीधे सत्ताधारी दल पर आरोप लगाया कि बड़ी दवा कंपनियां मोटा चंदा देकर सरकार का संरक्षण लेती हैं और इसीलिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। उन्होंने कहा कि यह सरकार का मोटा चंदा, लोगों की जिंदगी से ज्यादा कीमती हो गया है।
सवाल तो कई हैं और जवाब कोई नहीं…
क्या यह सच नहीं है कि जब कोई गरीब, बेबस इंसान दवा खरीदता है, तो वह उम्मीद के साथ खरीदता है? क्या यह सच नहीं है कि नकली दवाएं खाकर लोग ठीक होने के बजाय और बीमार पड़ रहे हैं? और क्या यह भी सच नहीं है कि जिन कंपनियों को इस पर कार्रवाई करनी चाहिए, वही सत्ता का संरक्षण लेकर लोगों को लूट रही हैं?
यह मामला सिर्फ आगरा का नहीं है, यह पूरे देश का है। आज आगरा में छापेमारी हुई है, तो कल किसी और शहर में होगी, लेकिन क्या इस छापेमारी से कुछ बदलेगा? या फिर यह सिर्फ एक और खबर बन कर रह जाएगी, जिसे कुछ दिन बाद लोग भूल जाएंगे?
रामजीलाल सुमन ने कहा कि अगर इन नकली दवा विक्रेताओं पर सख्त कार्रवाई नहीं हुई, तो समाजवादी पार्टी बड़ा आंदोलन करेगी। आंदोलन होगा, सवाल उठाए जाएंगे, लेकिन सवाल ये है कि क्या हम सब भी अपनी आंखें खोलेंगे और पूछेंगे कि क्या हमारा जीवन, क्या हमारी सेहत, चंद पैसों के लिए बिक रही है? क्या वाकई हम उस देश में रहते हैं, जहां नकली दवाओं के कारोबार में नंबर-1 होना भी एक उपलब्धि मानी जाती है?
क्या यह मान लिया जाए कि आज के समय में “दवा” और “जहर” में कोई फर्क नहीं बचा है, बस लेबल का ही खेल है?
क्या यह कहना गलत होगा कि सरकार ‘दवा माफिया’ और ‘चंदा माफिया’ के बीच की एक कड़ी बन चुकी है?
क्या देश की जनता को यह मान लेना चाहिए कि स्वास्थ्य सुरक्षा अब एक निजी जोखिम है, जिसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ उसी की है?
नकली दवाओं का धंधा: क्या बीमार है देश की स्वास्थ्य व्यवस्था?
क्या यह सिर्फ आगरा का मामला है? दुर्भाग्य से नहीं। यह धंधा देश के हर कोने में फैला हुआ है। दिल्ली के भागीरथी पैलेस से लेकर हरियाणा के जींद और हिमाचल के बद्दी तक, नकली दवाओं का एक संगठित नेटवर्क काम कर रहा है। Johnson & Johnson, GSK, Alkem जैसी प्रतिष्ठित कंपनियों के नाम पर जीवन रक्षक दवाएं तक नकली बनाई जा रही हैं।
‘मेड इन इंडिया’ नकली दवाएं
सांसद रामजीलाल सुमन ने WHO की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि दुनिया में 17 लाख करोड़ रुपये का नकली दवाओं का कारोबार है और इसमें भारत का योगदान सबसे ज्यादा है। यह एक ऐसा दावा है जो हमें सोचने पर मजबूर करता है। क्या हम वाकई “विश्व गुरु” बनने की राह पर नकली दवाओं के कारोबार में भी विश्व में नंबर एक बन गए हैं?
जुलाई 2025 में 143 दवाएं गुणवत्ता मानदंडों पर खरी नहीं उतरीं और 8 दवाएं नकली मिलीं। जून 2025 में भी यही कहानी थी, जहां 4 दवाओं के बैच नकली पाए गए और 185 दवाएं गुणवत्ता में फेल हो गईं। ये आंकड़े कोई राजनीतिक दल नहीं, बल्कि स्वयं सरकारी एजेंसियां दे रही हैं। CDSCO (केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन) की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 से 2025 के बीच 5,74,233 दवाइयों के सैंपल में से सिर्फ 16,839 ही गुणवत्ता के अनुरूप पाए गए। 5.9% नकली दवा बनाने वालों पर कार्रवाई हुई, जबकि बाकी को बचा लिया गया। यह आंकड़ा दिखाता है कि या तो हमारे पास कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, या फिर कहीं और से संरक्षण मिल रहा है।
सवाल जो उठ रहे हैं
सत्ता का संरक्षण? चंदा? क्या यह सब सिर्फ आरोप हैं, या फिर एक कड़वी हकीकत जो हम नहीं देखना चाहते?
जब सरकार खुद स्वीकार करती है कि इतनी बड़ी मात्रा में दवाएं गुणवत्ता में फेल हो रही हैं, तो क्या देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह से भगवान भरोसे नहीं चल रही है?
हम चांद पर पहुंचने की बात करते हैं, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया की बात करते हैं। लेकिन क्या ‘मेक इन इंडिया’ का मतलब अब ‘नकली दवाएं इन इंडिया’ हो गया है?
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिन कंपनियों की दवाएं हम जीवन बचाने के लिए खरीदते हैं, उन्हीं के नाम पर नकली दवाएं हमारे जीवन को खतरा पहुंचा रही हैं? क्या मरीज अब डॉक्टर के साथ-साथ जासूस का काम भी करे, ताकि वह पता लगा सके कि कौन सी दवा असली है और कौन सी नकली?
आगरा में हुई छापेमारी एक छोटी-सी झलक है, उस बड़े और गंभीर संकट की, जिससे हमारा देश जूझ रहा है। नकली दवाओं का यह कारोबार केवल आर्थिक अपराध नहीं, बल्कि एक नैतिक अपराध है। यह सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हम सब की जिम्मेदारी है कि हम इस पर सवाल उठाएं और इस पर बात करें। जब तक इस पूरे नेटवर्क की तह तक जाकर इसका पूरी तरह से खुलासा नहीं किया जाएगा, तब तक यह बीमारी फैलती रहेगी और जाने कितने ही जीवन इसके शिकार होंगे।
क्या हम इस बीमारी को नजरअंदाज करते रहेंगे, या फिर अब वक्त आ गया है कि इस पर गंभीर रूप से विचार किया जाए और कठोर कदम उठाए जाएं?
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-मोहम्मद शाहिद की कलम से