(वरिष्ठ पत्रकार एवं आध्यात्मिक चिंतक)
आमतौर पर यह शब्द जितना साधारण दिखता है, उतना ही गहरा है। प्रायः इसकी परिभाषा उस क्षणिक अनुभूति तक सीमित कर दी जाती है, जब हम किसी अंतिम संस्कार में बैठकर मृत्यु का दृश्य देखते हैं। वहां हमें क्षणिक बोध होता है कि जीवन वास्तव में नश्वर है, धन-दौलत, अहंकार, पद-प्रतिष्ठा सब यहीं रह जाने वाले हैं। उस क्षण हम भीतर से हिल जाते हैं, जीवन को व्यर्थ समझने लगते हैं, और एक गहरी तटस्थता का अनुभव करते हैं। लेकिन जैसे ही श्मशान की चौखट पार करते हैं, यह वैराग्य पिघलकर बह जाता है और हम पुनः वही मोह-माया, लालसा और स्पर्धा के गणित में लौट आते हैं।
असल में “श्मशान वैराग्य” का अर्थ यह नहीं कि हम जीवन को नकार दें, बल्कि यह है कि मृत्यु की सच्चाई को समझकर जीवन को अधिक सार्थक बना सकें। अगर मृत्यु निश्चित है, तो जीवन की यात्रा को बोझिल बनाने का क्या औचित्य? असली श्मशान वैराग्य वह है, जब हम वहां देखे गए दृश्य को बाहर भी याद रखें, और उसी स्मृति से अपने जीवन की दिशा तय करें।
यदि हम गहराई से देखे तो ‘श्मशान’भी हमें जीवन से जुड़ी कुछ बातें सिखाता है। जीवन मे संपत्ति नहीं, संबंध टिकते हैं। उस चिता पर किसी की ज़िंदगी भर की कमाई, जमा-पूंजी, शान-ओ-शौकत नहीं जाती, बल्कि केवल रिश्ते और भावनाएं जाती हैं। श्मशान में रोते लोग हमें यह बताते हैं कि इंसान को “क्या मिला” नहीं बल्कि “कितना बांटा” गया, यह मायने रखता है।
समय सबसे बड़ा धन है। मृत्यु का दृश्य बताता है कि हमारे पास समय सीमित है। यह समय तकरार, ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा में बर्बाद करने के लिए नहीं, बल्कि कुछ रचने, प्रेम करने और दूसरों के काम आने के लिए है।
इसके अलावा” वैराग्य” का अर्थ सिर्फ पलायन नहीं,बल्कि संतुलन है। जीवन का परित्याग करना वैराग्य नहीं है। वैराग्य का सही अर्थ है, मोह-माया से परे रहकर भी अपने कर्तव्यों को निभाना। जैसे कमल कीचड़ में खिलकर भी कीचड़ से अछूता रहता है, वैसे ही सच्चा वैराग्य यह है कि हम दुनिया में रहें, लेकिन दुनिया हममें न समा जाए।
भगवद्गीता (२/२७) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।”
अर्थात, जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है और जिसकी मृत्यु हुई है उसका पुनर्जन्म भी निश्चित है। श्मशान इसी श्लोक का सजीव प्रमाण है।
संत कबीरदास ने लिखा कि “माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे।एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे॥” अर्थात यह दोहा हमें याद दिलाता है कि जो मिट्टी से बना है, एक दिन उसी मिट्टी में मिल जाना है।
उन्होंने यह भी कहा कि “काल करै सो आज कर, आज करै सो अब..! पल में परलय होइहैं, बहुरि करेगा कब॥” यानी जो करना है, आज करो, अभी करो। कौन जाने अगला पल हो या न हो।
इसलिए, यदि श्मशान का अनुभव केवल दीवारों के भीतर तक सीमित रह जाए तो वह केवल एक भावुक क्षण है, किंतु यदि वह हमें बाहर निकलकर भी जीवन का मार्ग दिखाए तो वही सच्चा “श्मशान वैराग्य” है।
“मृत्यु को याद रखो, पर जीवन को जीना मत भूलो।”
-up18News