धार्मिक स्थलों पर विवाद: सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद आज सनातन संस्कृति का हो रहा पुनरुद्धार

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प्रियंका सौरभ

धार्मिक विवादों में न्यायिक फैसले अक्सर राजनीतिक लामबंदी के उपकरण बन जाते हैं, जो न्यायपालिका की तटस्थता बनाए रखने की क्षमता को चुनौती देते हैं। संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के साथ धार्मिक अधिकारों को संतुलित करना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है, खासकर जब निर्णयों को एक समुदाय के पक्ष में माना जाता है। विवादित धार्मिक स्थलों से जुड़े मामलों को अनुमति देना अधिनियम के मूल सिद्धांत को कमजोर करता है, जिससे पूजा स्थलों को लेकर भविष्य में संघर्षों के लिए एक मिसाल क़ायम होती है। संवैधानिक सिद्धांतों का पालन सुनिश्चित करने और धर्मनिरपेक्षता की सुरक्षा की तत्काल आवश्यकता है।

धार्मिक स्थलों पर विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका को संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव सर्वोपरि रहे। पूजा स्थल अधिनियम के सिद्धांतों को सुदृढ़ करके, समय पर और निष्पक्ष निर्णय देकर और संघर्ष समाधान तंत्र को बढ़ावा देकर न्यायपालिका जनता का विश्वास बना सकती है और ऐतिहासिक शिकायतों को सामाजिक शांति को बाधित करने से रोक सकती है। भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की रक्षा करने वाला भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण इसके विविध, बहुलवादी समाज में एकता बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

न्यायपालिका भारतीय संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता, समानता और न्याय के सिद्धांतों की रक्षा करते हुए धार्मिक स्थलों पर विवादों को सुलझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालाँकि, यह कार्य ऐतिहासिक दावों को समकालीन अधिकारों के साथ संतुलित करने, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने, भावनात्मक संवेदनशीलता को सम्बोधित करने और पूजा स्थल अधिनियम, 1991 जैसे कानूनी ढाँचों का पालन सुनिश्चित करने जैसी चुनौतियों से भरा है। ये जटिलताएँ संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए एक सावधान और निष्पक्ष दृष्टिकोण की माँग करती हैं। अगर किसी देश को नष्ट करना है तो उसकी सांस्कृतिक पहचान को खत्म कर दो। देश अपने आप नष्ट हो जाएगा।

भारत पर हमला करने वाले विदेशी आक्रांताओं ने यही किया। इस्लामी आक्रांताओं ने न सिर्फ धन-संपदा लूटी बल्कि भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को खत्म करने के लिए बड़े पैमाने पर मंदिरों और धार्मिक स्थलों को तोड़ कर मस्जिदें बना दीं। अंग्रेजों का लक्ष्य भी भारत को कमजोर बनाकर यहां के संसाधनों का दोहन करना था। इसलिए उन्होंने भी भारत की सांस्कृतिक पहचान को कमजोर करने के लिए हर संभव प्रयास किए। आक्रांताओं द्वारा नष्ट किए गए धार्मिक स्थल सिर्फ धार्मिक प्रतीक नहीं हैं।

एक प्राचीन सभ्यता के तौर पर इनके बिना भारत की पहचान पूर्ण नहीं होती है। अयोध्या, काशी और मथुरा इसके कुछ उदाहरण हैं। सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद आज सनातन संस्कृति का पुनरुद्धार हो रहा है। काशी, मथुरा,संभल और अजमेर दरगाह मामले में साक्ष्यों और दस्तावेजों के आधार पर भारत की सांस्कृतिक पहचान के प्रतीकों को हासिल करने का प्रयास हो रहा है। धार्मिक स्थलों पर विवादों को सम्बोधित करने में न्यायपालिका के सामने आने वाली चुनौतियाँ जैसे कानूनी ढाँचे में अस्पष्टता। हालाँकि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 का उद्देश्य धार्मिक स्थलों की 1947 वाली स्थिति को स्थिर करना है, लेकिन इसके प्रावधान अलग-अलग व्याख्याओं के लिए जगह छोड़ते हैं, जिससे इसका प्रवर्तन कमज़ोर होता है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2022 में ज्ञानवापी मस्जिद जैसे मुकदमों को अनुमति दी, अधिनियम की व्याख्या धार्मिक चरित्र निर्धारित करने के लिए सर्वेक्षण की अनुमति देने के रूप में की। सदियों पुरानी शिकायतों पर दोबारा ग़ौर करने से सांप्रदायिक तनाव बढ़ने, सार्वजनिक व्यवस्था में बाधा उत्पन्न होने और सामाजिक एकता को नुक़सान पहुँचने का ख़तरा रहता है। धार्मिक विवादों में न्यायिक फैसले अक्सर राजनीतिक लामबंदी के उपकरण बन जाते हैं, जो न्यायपालिका की तटस्थता बनाए रखने की क्षमता को चुनौती देते हैं।

संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के साथ धार्मिक अधिकारों को संतुलित करना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है, खासकर जब निर्णयों को एक समुदाय के पक्ष में माना जाता है। विवादित धार्मिक स्थलों से जुड़े मामलों को अनुमति देना अधिनियम के मूल सिद्धांत को कमजोर करता है, जिससे पूजा स्थलों को लेकर भविष्य में संघर्षों के लिए एक मिसाल क़ायम होती है। संवैधानिक सिद्धांतों का पालन सुनिश्चित करने और धर्मनिरपेक्षता की सुरक्षा की तत्काल आवश्यकता है।

न्यायपालिका अक्सर संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखने के लिए प्रतिस्पर्धी धार्मिक दावों को संतुलित करती है (अनुच्छेद 25-28) । उदाहरण के लिए: एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में, सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान की एक बुनियादी विशेषता घोषित किया, जिसने धार्मिक मामलों में राज्य की निष्पक्षता को मज़बूत किया। यह सुनिश्चित करता है कि धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) दूसरों के अधिकारों या सार्वजनिक व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करती है। न्यायालय ऐतिहासिक अभिलेखों और साक्ष्यों के माध्यम से धार्मिक स्थलों पर विवादों की जांच करते हैं, धार्मिक भावनाओं पर संवैधानिक सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। अयोध्या विवाद (एम. सिद्दीक बनाम महंत सुरेश दास, 2019) में, सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्षता बनाए रखने के लिए प्रभावित पक्ष को वैकल्पिक भूमि आवंटित करते हुए संतुलित फ़ैसला देने के लिए ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्यों पर भरोसा किया। न्यायपालिका संवैधानिक अनुपालन सुनिश्चित करते हुए सांस्कृतिक या विरासत स्थलों के रूप में मान्यता प्राप्त धार्मिक संरचनाओं की सुरक्षा करती है।

अरुणा रॉय बनाम भारत संघ (2002) में, न्यायालय ने अनुच्छेद 51 ए (एफ) के तहत समग्र संस्कृति को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया, जो विरासत धार्मिक स्थलों पर विवादों में प्रासंगिक है। न्यायालय प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के साथ धार्मिक विवादों का निपटारा करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी पक्षों को बिना किसी पूर्वाग्रह के सुना जाए।

ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर विवाद में न्यायपालिका ने साक्ष्यों के संग्रह और मूल्यांकन में प्रक्रियागत अनुपालन पर ज़ोर दिया है, जिससे निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांतों को सुनिश्चित किया जा सके। धार्मिक स्थलों पर विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका को संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करना चाहिए, यह सुनिश्चित करते हुए कि धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव सर्वोपरि रहे।

पूजा स्थल अधिनियम के सिद्धांतों को सुदृढ़ करके, समय पर और निष्पक्ष निर्णय देकर और संघर्ष समाधान तंत्र को बढ़ावा देकर न्यायपालिका जनता का विश्वास बना सकती है और ऐतिहासिक शिकायतों को सामाजिक शांति को बाधित करने से रोक सकती है। भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की रक्षा करने वाला भविष्योन्मुखी दृष्टिकोण इसके विविध, बहुलवादी समाज में एकता बनाए रखने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

-up18News


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