पटना। बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम एनडीए के पक्ष में जिस रफ्तार से आए, उसने न सिर्फ महागठबंधन को पीछे धकेल दिया, बल्कि साफ कर दिया कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की चुनावी रणनीति एक बार फिर सटीक साबित हुई है। बिहार की राजनीति को हमेशा से बेहद संवेदनशील और निर्णायक माना जाता है। ऐसे में एनडीए की बड़ी जीत ने यह संदेश दे दिया कि मोदी-शाह की चुनावी जोड़ी आज भी अजेय है।
गुजरात की मिट्टी से तपकर निकले अमित शाह ने बिहार चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर बेहद सूक्ष्म रणनीति के साथ मैदान में उतरे। उन्होंने न सिर्फ संगठन को नए सिरे से धार दी, बल्कि हर सीट पर सोशल इंजीनियरिंग, बूथ मैनेजमेंट और बागियों को साधने जैसे अहम मोर्चों पर खुद कमान संभाली। बिहार जीत के लिए उनका टारगेट 160 सीटों का था, लेकिन एनडीए ने इससे भी आगे बढ़कर इतिहास रच दिया।
1. भरोसेमंद टीम पर दांव, जीती रणनीति
अमित शाह ने चुनाव प्रबंधन में अपने सबसे भरोसेमंद और जीरो-एरर नेताओं को बिहार की ज़िम्मेदारी सौंपी।
गुजरात बीजेपी के भीखू दलसानिया को संगठन सुदृढ़ करने का दायित्व दिया गया।
धर्मेंद्र प्रधान को चुनाव प्रभारी बनाया गया, जबकि यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और केंद्रीय मंत्री सीआर पाटिल को सह-प्रभारी की भूमिका मिली।
पाटिल का डेटा-आधारित चुनावी प्रबंधन और तावड़े की जमीन से जुड़े फीडबैक ने बीजेपी की रणनीति को धार दी।
इन सभी नेताओं ने शाह की योजना को बूथ स्तर तक लागू किया, जिसका सीधा लाभ परिणामों में दिखा।
2. एनडीए में मजबूत समन्वय, महागठबंधन की रणनीति फेल
बीजेपी ने इस बार जेडीयू, हम, लोजपा(R), और आरएलएसपी जैसे सहयोगी दलों के बीच बेहतर तालमेल बैठाकर महागठबंधन को हर मोर्चे पर कमजोर कर दिया।
नीतीश कुमार, जीतन राम मांझी, चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के नेताओं के साथ सीट-साझेदारी और जनसभाओं में मजबूत ट्यूनिंग ने एनडीए को पूरे बिहार में एक पॉजिटिव मैसेज दिया।
3. गुजरात मंत्रिमंडल फेरबदल के बीच भी नहीं छोड़ा बिहार
जब गुजरात में मंत्रिमंडल के व्यापक बदलाव हुए, तब भी अमित शाह गुजरात नहीं गए। उन्होंने बिहार को 100% समय दिया।
राजनीतिक हलकों में यह चर्चा का विषय था कि शाह विस्तार में शामिल क्यों नहीं हुए, लेकिन अब परिणाम साफ कर रहे हैं कि उनका फोकस पूरी तरह बिहार पर था—और यह निर्णय सुपरहिट साबित हुआ।
4. 100 बागियों को मनाकर साधा चुनावी गणित
चुनाव के संवेदनशील समय में 100 से ज्यादा बागियों की नाराजगी एनडीए के लिए चुनौती थी। इनसे बातचीत और मनाने का जिम्मा अमित शाह ने खुद लिया। दो दिन तक सिर्फ बागियों की बैठकें चलीं, न कोई रैली, न अन्य कार्यक्रम। जैसे ही शाह ने आश्वासन दिया, सारे बागी मान गए और मैदान साफ हो गया। इस रणनीति ने एनडीए के कई सीटों पर मुकाबले को एकतरफा बना दिया।
5. पीके फैक्टर और गुजरात मुद्दे को किया बेअसर
प्रशांत किशोर ने सम्राट चौधरी और गुजरात मॉडल को लेकर कई हमले बोले, लेकिन शाह की रणनीति ने इस नैरेटिव को पनपने ही नहीं दिया। तेजस्वी यादव द्वारा उठाए गए “बिहार को कौन चलाएगा?” जैसे सवाल भी असर नहीं दिखा सके। एनडीए ने अपने सहयोगियों को सिर्फ विनिंग सीटें देकर महागठबंधन की कमजोरी और रणनीति की विफलता को उजागर कर दिया।
नतीजे: मोदी-शाह की चुनावी मशीनरी फिर साबित हुई अजेय
बिहार चुनाव ने एक बार फिर दिखाया कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और अमित शाह का संगठन कौशल बीजेपी को “चुनाव जीतने वाली मशीन” बनाता है। महागठबंधन जहाँ सीटों और रणनीति—दोनों में पिछड़ गया, वहीं एनडीए ने आंकड़ों के साथ-साथ नैरेटिव की लड़ाई भी जीत ली।
बिहार की यह प्रचंड जीत न सिर्फ एनडीए के आत्मविश्वास को बढ़ाने वाली है, बल्कि 2026 और 2029 के चुनावी परिदृश्य को भी प्रभावित करने वाली साबित हो सकती है।
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