लोकतंत्र को बीमार कर रही प्रेस पर पाबंदी…क्या पत्रकारों की कलम बंद करने से देश आगे बढ़ेगा?

अन्तर्द्वन्द

दुनिया के कई देशों में इन दिनों प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर व्यापक चर्चा हो रही है. खासकर भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में, जहां सरकार की नीतियों की आलोचना करने और उनकी कार्यशैली पर सवाल उठाने पर पत्रकारों पर बड़े पैमाने पर मुक़दमे दर्ज किए जा रहे हैं. इसका सीधा असर विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (World Press Freedom Index) में भारत की रैंकिंग पर भी दिख रहा है, जिसमें साल 2021 में कोई सुधार नहीं हुआ. सवाल यह है कि क्या एक मज़बूत लोकतंत्र में मीडिया को सिर्फ सरकार की तारीफें करनी चाहिए?

मीडिया की स्वतंत्रता: सिर्फ लोकतंत्र की नहीं, अर्थव्यवस्था की भी धड़कन

यह बात सुनने में अटपटी लग सकती है कि मीडिया की स्वतंत्रता का सीधा संबंध देश की अर्थव्यवस्था से है, लेकिन अब यह प्रमाणित हो चुका है. एक हालिया शोध में इस बात के पुख्ता प्रमाण मिले हैं कि प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले, जैसे पत्रकारों को जेल में डालना, उनके घरों पर छापा मारना, प्रिंटिंग प्रेस को बंद करना, या डराने-धमकाने के लिए मानहानि के मुक़दमे दायर करना, आर्थिक विकास पर महत्वपूर्ण और नकारात्मक प्रभाव डालते हैं.

हमारी शोध टीम ने कई मेफ़िया संस्थानों के साथ मिल कर जिसमें अर्थशास्त्र, पत्रकारिता और मीडिया जगत के लोग शामिल थे, ने 1972 से 2014 तक 98 देशों के आर्थिक विकास के आंकड़ों का गहन विश्लेषण किया. इसके लिए हमने अमेरिका स्थित फ्रीडम हाउस की प्रेस फ्रीडम रैंकिंग का भी सहारा लिया.

विश्लेषण में चौंकाने वाले परिणाम सामने आए. जिन देशों ने मीडिया की स्वतंत्रता को कम किया है, वहां वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 1 से 2 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है. इसका मतलब यह है कि जब प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जाती है, तो इसका सीधा असर देश की आर्थिक प्रगति पर पड़ता है. यह शोध इस बात की पुष्टि करता है कि “कानून के शासन” को बनाए रखने वाली संस्थाएं मजबूत आर्थिक प्रदर्शन के साथ दृढ़ता से जुड़ी हुई हैं.

लोकतंत्र की वापसी संभव, पर अर्थव्यवस्था की नहीं

इस शोध से एक और महत्वपूर्ण और अप्रत्याशित खोज सामने आई है. फ्रीडम हाउस का अपना अध्ययन कहता है, “अवसर दिए जाने पर मीडिया की स्वतंत्रता लंबे समय तक दमन के बाद भी पलट सकती है.” इसका मतलब यह है कि ईमानदार और सूचना-आधारित पत्रकारिता जैसी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की बुनियादी आकांक्षाओं को कभी भी पूरी तरह से दबाया नहीं जा सकता है. लेकिन अर्थव्यवस्था के मामले में यह देखने को नहीं मिलता है. जिन देशों में प्रेस से स्वतंत्रता छीन ली गई और बाद में उसे लौटा दिया गया, वहां की अर्थव्यवस्था दोबारा पटरी पर नहीं आ पाई. क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि हमने लोकतंत्र को इतना कमज़ोर कर दिया है कि उसे वापस मज़बूत करना असंभव सा हो गया है?

दुनिया भर में पत्रकारों पर हमले

ये सिर्फ़ किसी एक देश का मुद्दा नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता पर नियंत्रण थोपने की प्रवृत्ति है. हांगकांग में नए सुरक्षा कानून स्वतंत्र मीडिया के लिए खतरा बन गए हैं. म्यांमार में विभिन्न प्रकाशन बंद कर दिए गए हैं और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया है. मलेशिया में सरकार की आलोचना करने पर पत्रकारों को परेशान किया गया और जेल में डाल दिया गया. फिलीपींस में एक सम्मानित खोजी पत्रकार, मारिया रेसा, को दो साल में 10 बार गिरफ्तार किया गया और उन पर विवादास्पद कानून के तहत “साइबर मानहानि” का आरोप लगाया गया.

और ये सिर्फ दूसरे देशों के मुद्दे नहीं हैं. पड़ोसी देशों की तुलना में, ऑस्ट्रेलिया अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र लग सकता है, लेकिन वहां भी हाल के वर्षों में, नए प्रतिबंधात्मक राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लागू किए गए हैं और ऑस्ट्रेलियाई संघीय पुलिस को पत्रकारों के घरों पर छापेमारी करते देखा गया है. पत्रकार संघ, मीडिया एंटरटेनमेंट एंड आर्ट्स एलायंस ने संघीय सरकार के इस कदम को “पत्रकारिता के खिलाफ युद्ध” करार दिया है.

जब मीडिया की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जाता है, तो इस महत्वपूर्ण गतिविधि के लिए जगह खत्म हो जाती है. स्वतंत्र प्रेस नागरिकों को बता सकती है कि उनके नेता कितने सफल या असफल हैं, लोगों की आकांक्षाओं को अधिकारियों तक पहुंचा सकती है और सूचनाओं व विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक मंच के रूप में कार्य कर सकती है. जब यह सब बंद हो जाता है, तो कमजोर निर्णय लिए जाते हैं, जिसके परिणाम नेतृत्व और नागरिकों दोनों के लिए हानिकारक होते हैं.

आंकड़ों पर अभी और कार्य किया जाना है, लेकिन हमारा विश्लेषण इस बात का पुख्ता सबूत देता है कि मीडिया की आजादी और बेहतर शिक्षा आर्थिक प्रगति में अहम भूमिका निभाती है. शायद इसी प्रेरणा से ऑस्ट्रेलिया समेत कई अन्य देशों की सरकारें प्रेस की आजादी के बारे में नए सिरे से सोचने लगी हैं और जनहित की पत्रकारिता को अधिक वित्तीय सहायता प्रदान करने लगी हैं.

क्या यह समय नहीं आ गया है कि भारत भी अपनी अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र के लिए मीडिया की स्वतंत्रता के बारे में फिर से सोचे?

मोहम्मद शाहिद की कलम से

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