देश एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें सामाजिक-आर्थिक दशाओं में विष्मयकारी परिवर्तन दिखाई पड़ रहे हैं ।विकास की चाह ने आज हमें उस चौखट पर खड़ा कर दिया है, जहां अभी हाल तक सरकारें माथा टेकने से बचती थीं । कल तक जो सरकारें, सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र को ही विकास का पायदान और इंजिन मानती रहीं वही आज निजी क्षेत्र की कदम बोसी करती नहीं अघाती हैं । हिन्दुस्तान की आर्थिक विकास यात्रा में हाल के वर्षों में पूंजी हमें निर्देशित करती प्रतीत हो रही है।
निजी क्षेत्र की कदम बोसी बढ़ी है
अम्बानी, अडानी जैसे पूंजीपति महारथिओं की शृंखला में अनेक नए नाम रोज ही जुड़ रहे हैं जो विभिन्न मंचों से सरकार और समाज को अपनी आवाज और विचार से राह दिखाते, दिशा निर्देशित करते या कि बजट बनाने की प्रक्रिया में सलाह देते दिखाई देते हैं। इन्ही बहुचर्चित नामों में विश्व विख्यात इनफ़ोसिस कम्पनी के संस्थापकों में से रहे एक श्री नारायण मूर्ति जी भी हैं जिनके हाल के एक बयान ने आर्थिक जगत में तहलका मचा दिया है। वे हिन्दुस्तान के सफलतम उद्योगपतिओं में से एक हैं अतः उनके सन्देश को देश गंभीरता से ले रहा है। सन्देश संक्षिप्त किन्तु गूढ़ और व्यापक असर वाला है और उसने सुन्न कर दिया है उन सभी को भी जो अपने को देश भक्त और कर्मवीर मानते रहे हैं अभी तक ।
सत्तर घंटे कार्य करना, नौजवानों की देशभक्ति का प्रमाण होगा
श्री नारायण मूर्ति विशेष रूप से देश के नौजवानों से अनुरोध करते दिखाई देते हैं कि देश का विकास, उनसे कठोर श्रम और समर्पण मांग रहा है और उन्हें देश के विकास के लिए सत्तर घंटे प्रति सप्ताह कार्य करना चाहिए । वे बताते हैं कि भारत भी उन देशों में सम्मिलित है जहां विश्व के अन्य देशों की तुलना में कार्य उत्पादकता सबसे कम है । हम जब तक अपनी कार्य उत्पदाकता में सुधार नहीं करते हैं तब तक हम उन देशों से प्रतियोगिता नहीं कर सकते जो कि पहले से ही प्रगति कर चुके हैं । इसलिए नौजवानों को सोचना होगा कि वे माने की यह देश उनका है और उसके लिए उन्हें सत्तर घंटे कार्य करना होगा । उनकी यह उक्ति विश्व पटल पर आज देश की प्रतियोगिता करने की क्षमता पर न केवल एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है अपितु मांग करती है, देश के प्रति हमारी श्रद्धा, वचनबद्धता और समर्पण के उद्धघोष की । पुनः उनकी दृष्टि में काम के घंटे में अभूतपूर्व वृद्धि से ही उत्पादकता में आशातीत वृद्धि की जा सकती है जो कि हमारी देश के प्रति भक्ति की कसौटी भी बनती है । उनके इस कथन ने भारत के आर्थिक जगत में एक भूचाल सा उत्पन्न कर दिया है । किन्तु पहले समझने की आवश्यकता है कि उत्पादकता क्या होती है जिसे बढ़ाने की वे वकालत कर रहे हैं ।
श्रम की उत्पादकता क्या होती है ?
श्रम की उत्पादकता प्रायः एक घंटे में उसके द्वारा कितना कार्य किया गया अथवा कितना उत्पादन किया गया से मापते हैं । वैश्विक पटल पर यदि हमारी कार्य उत्पादकता बहुत कम है तो इसका मतलब होगा कि हम कम काम कर रहे हैं । हमारे काम के घंटे कम हैं या हम कम उत्पादन कर रहे हैं और हमारी लागत ज्यादा है और श्री मूर्ति इसे काम के घंटे बढ़ा कर उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं या लागत घटाना चाहते हैं । व्यक्तिगत रूप से बताते हैं कि श्री मूर्ति ने 70 से 94 घंटे तक प्रति सप्ताह कार्य किया है । देश की प्रसिद्ध समाजसेवी और श्री नारायण मूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने भी इसी महीने श्री मूर्ति के कथन का समर्थन करके संवाद को और भी धार दे दिया है । बताती हैं कि वे आज भी सत्तर घंटे प्रति सप्ताह काम करती हैं। अब तो नारायण मूर्ति के कंधे से कन्धा मिलाने के लिए पूंजीवाद के एक और खिलाड़ी उतर पड़े हैं मैदान में । लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन और एमडी एस. एन सुब्रह्मण्यम कहते हैं कि यदि उनका बस चले तो वे सभी कर्मचारियों से 90 घंटे काम लें । वे स्वयं सातों दिन काम करते हैं ।लेकिन प्रश्न तो यह है कि काम के घंटे बढ़ाने का क्या अर्थ है और उसका हमारी जिंदगी पर कैसा असर होगा? फिर उत्पादकता क्या काम के घंटे ज्यादा करने से ही बढ़ती है ? अतः प्रश्न ही प्रश्न हैं ।
क्या काम के घंटे कम हैं हिंदुस्तान में?
अभी देश में लम्बे संघर्षों के पश्चात् और अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के निर्देशानुसार काम के घंटे श्रमिकों के लिए 48 घंटे प्रति सप्ताह निर्धारित हैं । प्रबंधन वर्ग तो अभी ही काम के अनियमित घंटे की मार से कराह रहा है । फिर भी कंपनी सेक्टर के मालिकान में से एक नारायण मूर्ति मानते हैं कि काम के घंटे कम हैं हिंदुस्तान में। अतः काम का बोझ बढ़ाना चाहिए और कामगारों को कर्म योगी होने का प्रमाण देना चाहिए । लेकिन प्रश्न तो यह है कि क्या विश्व की तुलना में वास्तव में काम के घंटे कम हैं हिन्दोस्तान में ? अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि भारतीय, औसतन 47.7 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं जबकि चीन (46.1), सिंगापुर (42.6), जापान (36.6), अमेरिका (36.4), ब्रिटैन (35.9) और जर्मनी (34.4) के कामगार हिंदुस्तानिओं की तुलना में प्रति सप्ताह कम घंटे काम करते हैं । यह रिपोर्ट भी हिंदुस्तानिओं के मेहनत की पूरी तस्बीर प्रस्तुत नहीं करती है । बताते हैं कि आज अनेक भारतीय 55 से 60 घंटे प्रति सप्ताह काम करते हैं जो कि किसी न किसी वैश्विक कम्पनी से जुड़े हैं ।
सन 2019 के टाइम यूज़ सर्वे के अनुसार 15-29 साल के ग्रामीण नौजवान 7.2 घंटे और शहरी नौजवान 8.5 घंटे प्रति दिन काम कर रहे थे। इस पर भी वे नारायण मूर्ति के 70 घंटे प्रति सप्ताह काम करने की इच्छा का सम्मान कर पाने में असफल रहे। ऐसा क्यों कर हुआ? क्योंकि कार्य दिवस प्रति सप्ताह 6 या 5 दिन निर्धारित होने पर क्रमसः लगभग 12 घंटे या 14 घंटे काम करना होगा। बेगारी ऊपर से । बॉस जब तक ऑफिस में हैं, चाहे वे अपनी पत्नी या बेटी का इंतजार ही क्यों न कर रहे हों साथ घर जाने के लिए, आपको भी डटे रहना होगा ऑफिस में । यदि विदेश में स्थित हेड ऑफिस की मीटिंग हो, चाहे वह भारत में रात्रि का समय ही क्यों न हो, आप को अवश्य ही अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी । ऊपर से महानगरों में दो या तीन घंटे चाहिए आवागमन के लिए भी । सांस लेने की फुर्सत नहीं है आज ही । नारायण मूर्ति की इच्छा का सम्मान करने में तो सांस ही छूट जाने की संभावना बनती है । फिर भी क्या होगा या होता उत्पादकता पर असर यदि हिंदुस्तानी 70 घंटे काम करने लगते प्रति दिन? उत्पादकता बढ़ जाएगी हिंदुस्तान में । भारत और भी प्रतियोगिता कर पाने में सक्षम होगा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में । कम्पनियों को लाभ ही लाभ होगा और होगा अर्धव्यवस्था का विकास । श्री मूर्ति तो यही मानते हैं । लेकिन कंपनी सेक्टर के कुछ विशेषज्ञ और रिपोर्ट्स नहीं मानती उनके इस तर्क को कि उत्पादकता केवल लम्बी अवधि तक काम करने से ही बढ़ती है ।
उत्पादकता किन कारकों से प्रभावित होती है?
वे मानते हैं कि उत्पादकता को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं, यथा उत्पादन करने वालों की कुशलता कितनी है या कार्य स्थल पर उत्पादन करने का कितना सकारात्मक माहौल है या वेतन सम्बन्धी स्थिति कैसी है, वेतन समय पर और पर्याप्त मिलता है या नहीं । फिर वर्क-लाइफ बैलेंस सम्बन्धी प्रश्न भी है । क्या है यह ? जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए कार्य करना आवश्यक है । किन्तु दैनिक जीवन, तनावरहित और गुणवत्ता पूर्ण भी होना चाहिए अर्थात पारिवारिक उपलब्धिओं से युक्त और आनंद दायक होना चाहिए । इससे काम के प्रति उत्साह और लगाव बढ़ता है और उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है । इसके विपरीत काम के अतिशय दबाव में जीवन ही बिखरने लगे तो वह काम भी किस काम का? ऐसे काम से क्या फायदा जिसको करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ सम्बन्धी समस्याएं ही जन्म लेने लगें। न तो हम सामाजिक हो पाएं, न पारिवारिक और न ही वर्जिस कर पाएं । मनोरंजन की बात तो दूर, चैन के दो पल भी मयस्सर न हो जिस काम में ।
50 घंटे कार्य दिवस अर्थात आफ़त ही आफ़त
वस्तुतः शोध बताते हैं कि 50 घंटे कार्य दिवस होने पर ही उत्पादकता घटने लगती है । नींद सम्बन्धी समस्या जन्म लेने लगती है ।नींद की कमी से आप बेहाल होने लगते हैं। मोटापा बढ़ता है। तनाव, चिंता और अवसाद से घिरने की पूरी संभावना बनने लगती है । काम के घंटे 55 पहुंचने पर ह्रदय सम्बन्धी समस्याओं के जन्म लेने या स्ट्रोक का भय उत्पन्न होने लगता है, बताते हैं । तो क्या काम के घंटे बढ़ा कर हम कहीं शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक थकान और विभिन्न आफतों को आमंत्रित नहीं करने जा रहे हैं ? अपने देश में कहां-कहां, कब-कब समय निकालना पड़ सकता है आपको कार्यालय काम के अतिरिक्त? पत्नी प्रेग्नेंट है तो डॉक्टर को दिखाने आपको ले जाना होगा । आप यदि बच्चे के एडमिशन के समय उसके स्कूल न पहुंचे तो उसका प्रवेश नहीं होगा । अध्यापक-अभिवावक मीटिंग में आपका रहना लगभग अनिवार्य है । जैसे पढाई का जिम्मा स्कूल का नहीं आपका ही है । बुजुर्ग माँ-बाप की सेवा करना आपका धर्म ही नहीं वरन कानून भी बाध्य करता है आपको । आपको अपने को श्रवण कुमार साबित करना ही चाहिए । आपको एक कर्मठ, अनुशासन प्रिय, सफल श्रमिक या प्रबंधक भी बनना है बिना बीमार हुए । सबके लिए समय ही समय चाहिए । ऑफिस पहुंचने के लिए रास्ते की रोज की कम से कम दो घंटे की जद्दोजेहद तो है ही । फिर भी समय पर ऑफिस पहुंच जाईये । ऊपर से अब सत्तर घंटे काम करके देशभक्त भी साबित करना है आपको । अनेक देश चार दिन सप्ताह कार्य दिवस का प्रयोग कर रहे हैं
इसीलिए श्री मूर्ति की इच्छा के विपरीत, सन 2022 में बेल्जियम ने अपने श्रमिकों के लिए पूरे वेतन पर चार दिन प्रति सप्ताह के कार्य का नियम बना दिया था । इसी भांति, इंग्लैंड में भी अनेक कंपनियों ने छह महीने के ट्रायल के पश्चात चार दिन प्रति सप्ताह कार्य दिवस का अनुमोदन किया बताते हैं। इस व्यवस्था से कर्मचारिओं को भी व्यापक फायदा हुआ था । बताते हैं कि चार दिन प्रति सप्ताह कार्य दिवस प्रयोग में लाने पर न्यूजीलैंड में परपेटुअल गार्डियन कंपनी ने सन 2018 में और माइक्रोसॉफ्ट जापान ने सन 2019 में उत्पादकता में क्रमसः 20 प्रतिशत और 39.9 प्रतिशत की वृद्धि पाई थी । तनाव में भी कमी दिखाई पड़ी। इसीलिए आज अनेक देश चार दिन प्रति सप्ताह कार्य दिवस का प्रयोग कर रहे हैं ।
अन्यमनस्कता को कम करना होगा
वस्तुतः काम के घंटे बढ़ाने की अपेक्षा काम की गुणवत्ता पर ध्यान देने की आवश्यकता है । उत्पादकता बढ़ाने के लिए कार्यक्षमता को बेहतर बनाने की आवश्यकता है जिससे समय की बचत होगी । कैसे होगा यह? प्राथमिकता का बेहतर निर्धारण, समय प्रबंधन और अन्यमनस्कता को कम करके यह कार्य किया जा सकता है। यह समझना होगा कि अन्यमनस्कता क्यों होती है? क्योंकि परिवार का चेहरा आप नहीं देखा पाते हैं लम्बे समय से । उन्हें समय नहीं दे पाते हैं । श्री सुब्रह्मण्यम तो जैसे केवल पत्नी को ही शामिल करते हैं परिवार में । लेकिन वस्तुतः परिवार में तो दो पीढ़िओं, माँ-बाप और बच्चों का समावेश होता है । श्री सुब्रह्मण्यम शायद बच जाते हैं इन दो पीढ़िओं के उत्तरदाईत्व से । किन्तु आम कर्मचारी कैसे बचें अपने पारिवारिक कर्तब्य से । तो अन्यमनस्कता तो होगी ही, समय के आभाव में । ऊपर से, ऊपर वाले ही मलाई काट लेते हैं उत्पादकता और लाभ में बढ़ोत्तरी का । कामगारों या प्रबंधको को तो वस्तुतः कटोरे में लगी मलाई से ही संतोष करना पड़ता है। यदि ऐसा नहीं हैं तो श्री सुब्रह्मण्यम क्या 51 करोड़ (बताते हैं) अकेले पचा नहीं जाते हैं कंपनी के वेतन का और असली कामगार देशभक्ति का गीत ही गुनगुनाने में लगा रहता है लगभग मुफलीसी में । मशीनीकरण और स्वचालन से तो वस्तुतः समय की बचत होनी चाहिए और उसका उपयोग कार्य समय में कमी लाने और आनंद के क्षणों को बढ़ाने में किया जा सकता है । लम्बे समय तक काम करने की अपेक्षा स्मार्ट रूप से काम करने-कराने की आवश्यकता है ।
पूंजीवाद का अरबी घोड़ा
तो क्या प्रसिद्ध उद्योगपति श्री नारायण मूर्ति और श्री सुब्रह्मण्यम को इन बातों का पता नहीं है? क्या पद्म पुरस्कार विभूषित सुधा मूर्ति भी अनजान हैं इन तथ्यों से? शायद नहीं। तो सत्य क्या हो सकता है? नारायण मूर्ति और सुब्रह्मण्यम, बताते हैं कि देशभक्त तो हैं ही किन्तु एक उद्योगपति भी हैं । कहते हैं कि पूंजीपति के लिए लाभ को अधिकतम करने में ख़ुशी दुगनी होती है । देशभक्ति का दाना बिखेरने से यदि लाभ बढ़ जाय तो इससे बेहतर क्या होगा। यदि ऐसा नहीं है तो 21वी शताब्दी में और एआई के इस युग में कम पूंजी और कम समय में, वैज्ञानिक विधि एवम नवाचार उपयोग से ज्यादा उत्पादन करने में राष्ट्रभक्ति दिखती है । लाभ के बटवारे में कामगारों को बेहतर वेतन देने में देशभक्ति बढ़ती ही है। क्या वे नहीं जानते? अफसोस, लगता है कि वे नहीं जानते । वस्तुतः पूंजीवाद का अरबी घोड़ा दौड़ने लगा है अब हिन्दुस्तान में ।
(लेखक डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में पूर्व प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं, संपर्क: 9450545510)
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