नौ दिन चले अढ़ाई कोस…क्या आगरा अवैध लाइसेंस मामले में हुई सुस्ती का जवाब दे पाएगा लखनऊ STF

State's

आगरा, सुबह के 7 बज रहे हैं। एक चाय की दुकान पर कुछ लोग जमा हैं, और बात हो रही है कि देश में सब कुछ कितनी तेज़ी से हो रहा है। विकास, प्रगति, और हाँ, भ्रष्टाचार भी। आगरा के एक छोटे से मामले को देख लीजिए, जिसमें फर्जी शस्त्र लाइसेंस और अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त की बात सामने आई। यह कोई साधारण मामला नहीं था, बल्कि इसमें नेशनल शूटर और रिटायर्ड सरकारी बाबू भी शामिल थे। और हाँ, अगर आपको लगता है कि इस मामले में कुछ नहीं हुआ, तो आप बिलकुल गलत हैं।

क्या आपने कभी 83 दिन गिने हैं? 83 दिन, जब एक महत्वपूर्ण केस की जांच बस इसलिए लटकी रही क्योंकि विवेचक की तबियत खराब थी। और तबियत इतनी खराब थी कि वे छुट्टी पर चले गए। लेकिन क्या हम पूछ सकते हैं कि क्या 83 दिन तक कोई और विवेचक उपलब्ध नहीं था? क्या हमारे सरकारी तंत्र में एक ही व्यक्ति पर इतनी जिम्मेदारी है कि उसके बीमार होने से पूरा सिस्टम रुक जाता है? या फिर कुछ और ही बीमार था?

मामला 24 मई को शुरू हुआ था, जब आगरा STF के इंस्पेक्टर यतींद्र शर्मा ने नाई की मंडी थाने में 7 लोगों के खिलाफ धोखाधड़ी और आर्म्स एक्ट के तहत FIR दर्ज कराई थी। इनमें नेशनल शूटर मोहम्मद अरशद, रिटायर्ड असलहा बाबू संजय कपूर, एक कथित वरिष्ठ पत्रकार जैसे नाम शामिल थे।

लेकिन कहानी में ट्विस्ट आता है। जैसे ही FIR हुई, आरोपी हाईकोर्ट की शरण में चले गए। कोर्ट ने 90 दिन में जांच पूरी करने और सबूत पेश करने के निर्देश दिए। यह डेडलाइन 18 सितंबर को खत्म हो रही है। और जब 83 दिन बीत गए और जांच में कोई प्रगति नहीं हुई, तब जाकर ये जांच आगरा STF से लखनऊ STF को ट्रांसफर कर दी गई।

एक सवाल: ये जांच चल रही थी, या बस टहल रही थी?

क्या आप सोच सकते हैं? एक मामला, जिसमें अवैध हथियारों का कारोबार हो रहा है, उसे 83 दिनों तक कोई पूछता नहीं। विवेचक हुकुम सिंह को यह केस सौंपा गया। उन्होंने कुछ दिन तो काम किया, फिर उनकी तबीयत खराब हो गई। क्या जांच की सेहत भी विवेचक की सेहत पर निर्भर करती है?

जब एक आरोपी को कोर्ट से राहत मिलती है, जिसमें यह लिखा होता है कि वह जांच में सहयोग करेगा, लेकिन वह एक दिन भी बयान देने नहीं आता। और पुलिस क्या करती है? कुछ नहीं।

आरोपी हाईकोर्ट में, पुलिस?

आरोपी हाईकोर्ट से राहत पाने में लगे रहे और पुलिस ने उन्हें पकड़ने की कोशिश तक नहीं की। क्या आरोपी खुद पुलिस थाने में आकर गिरफ्तारी देंगे? और सबसे मजेदार बात, जिन हथियारों को अवैध माना गया, उनमें से एक भी अब तक जब्त नहीं किया गया। ना ही उन्हें फॉरेंसिक लैब भेजा गया।

क्या हमारे सिस्टम में सबूत इकट्ठा करने का काम अब सिर्फ कोर्ट के आदेश पर होता है, वह भी तब, जब डेडलाइन एकदम करीब आ जाती है?

क्या यह भ्रष्टाचार का एक और चेहरा है, जहां मामला दर्ज होता है, लेकिन कार्रवाई के नाम पर सिर्फ टालमटोल की जाती है? क्या यह सिस्टम की विफलता नहीं है, जहां जांच 83 दिन तक एक जगह पर अटकी रहती है, और उसके बाद उसे किसी और को सौंप दिया जाता है?

यह सवाल हमें अपने आप से पूछना चाहिए। क्या यह सिस्टम की विफलता है या फिर जानबूझकर की गई सुस्ती?

अब उम्मीद की एक नई किरण

अब इस केस की कमान लखनऊ STF के हाथों में है। उम्मीद है कि अब जांच में तेजी आएगी। पर क्या 18 सितंबर की डेडलाइन तक सारे सबूत जुटाए जा सकेंगे? और क्या असली गुनहगारों को पकड़ा जा सकेगा? या फिर यह मामला भी एक और फाइल बनकर सरकारी दफ्तरों में गुम हो जाएगा, जैसे कई और मामले हो जाते हैं?

यह तो समय ही बताएगा। लेकिन एक बात तो साफ है, इस देश में फाइलें बहुत धीरे-धीरे चलती हैं, लेकिन क्या यह सिर्फ फाइलें हैं, या फिर कुछ और?

-मोहम्मद शाहिद की कलम से

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *