अमित श्रीवास्तव की ‘तीन’ महज़ एक किताब नहीं, बल्कि बीते समय का एक दरवाज़ा है। यह वह दरवाज़ा है, जिसे खोलते ही पाठक कस्बाई जीवन की गलियों में लौट जाते हैं। वह दौर जब मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन दोस्तों के साथ खेलना था, जब घर की रसोई की खुशबू ही सबसे बड़ी दावत होती थी और जब गणित की किताब को खोलना भी किसी साहसिक काम से कम नहीं लगता था। लेखक की यह कृति उन सबको छू जाती है, जिन्होंने कस्बे की सादगी को जिया है या जो उस दौर को जानना चाहते हैं।
बचपन की यादें और डर
हिन्द युग्म प्रकाशन से आई इस किताब में एक बच्चा है जो गणित से डरता है, जिसकी आंखों में अपनी क्लास की लड़कियों को लेकर उत्सुकता है और जिसके मन में किशोर उम्र के ढेर सारे सवाल हैं। यह वही बच्चा है जो सेक्स एजुकेशन को लेकर जिज्ञासु तो है लेकिन शिक्षा व्यवस्था उसे इन सवालों के जवाब देने से कतराती है। जीव विज्ञान की कक्षाओं में शिक्षक खुद प्रजनन क्रिया वाले अध्याय को छोड़कर आगे बढ़ा देते हैं। पाठक को यह सब पढ़ते हुए अपना ही बचपन याद आता है, जब सवाल बहुत थे लेकिन जवाब अधूरे।
लेखक छोटे-छोटे प्रसंगों को बड़ी आत्मीयता से लिखते हैं। पिता का पिज़्ज़ा को देखकर नाक सिकोड़ना और बच्चों का उसी खुशबू में खो जाना पुराने और नए के टकराव का दृश्य खींच देता है। इन पन्नों में हर पाठक को अपने जीवन का एक अंश दिखाई देता है।
मां और कस्बाई औरतों की तस्वीर
पुस्तक का एक अहम हिस्सा कस्बाई महिलाओं की छवि है। मां का किरदार यहां केंद्र में है। वह बच्चों से पूछती हैं कि रात को नींद ठीक से आई या नहीं, वह आग पर पूड़ी सेंकती हैं और इतनी दक्ष हैं कि एक किनारा भी नहीं जलता।
लेखक बताते हैं कि अम्मा के पास गुड़ को चींटों से बचाने के सौ तरीके थे। यह विवरण सिर्फ घरेलू हुनर नहीं दिखाता बल्कि उस जुझारूपन को सामने लाता है, जिसने कस्बाई समाज में महिलाओं को परिवार की असली धुरी बना रखा था। ऐसे प्रसंग आज की पीढ़ी को बताते हैं कि घर-आंगन में स्त्रियां कितनी रचनात्मक और व्यावहारिक हुआ करती थीं।
छोटे नाम बड़े किस्से
लेखक की कलम जैसे ही ढिबरी मास्साब, सरजूडा और घर घुसरू जैसे नामों को छूती है, पाठक अपने बचपन की भाषा और खेलों में लौट जाता है। ये सिर्फ नाम नहीं बल्कि वह भाव हैं जो अब साहित्य में कम दिखाई देते हैं।
चचा पोख्ता का किस्सा किताब का रोचक हिस्सा है। उनका असली नाम कुछ और था लेकिन लौकी पोख्ता बनाने की बात कहते-कहते वे खुद चचा पोख्ता बन गए। इसी तरह दूधियों का चित्रण इतना जीवंत है कि पाठक उनके माथे का पसीना और उनकी थकान को महसूस कर सकता है। लेखक जिस अदा से इन किरदारों को लिखते हैं, वह बीते समय को पाठक की आंखों के सामने खड़ा कर देता है।
बदलते समाज की झलक
कस्बाई समाज समय के साथ बदला और इस बदलाव को लेखक ने बड़ी सादगी से दर्ज किया है। दहेज की परंपरागत चीजें जैसे छाता, छड़ी, रेडियो और साइकिल धीरे-धीरे गायब होने लगीं। उनकी जगह लंब्रेटा, सोफा और कार ने ले ली।
लेखक लिखते हैं कि मध्यमवर्गीय सपनों ने यह सफर तय किया कि पहले यह मेरी जॉ के दुचक्के से शुरू हुआ और फिर मेरी मारुति के चार पहियों पर पहुंचा। यह वाक्य न केवल व्यंग्य है बल्कि बदलते सामाजिक सपनों का सटीक बयान भी है।
जौनपुर से अमरीका तक
किताब केवल बचपन की यादों तक सीमित नहीं रहती। इसमें जौनपुर की गलियां और अमरीका की नीतियां साथ-साथ दर्ज हैं। जौनपुर में जहां युवा सिनेमा की टिकट पाने के लिए खिड़की पर हाथ डालते थे, वहीं अमरीका में मनोरंजन बॉक्स ऑफिस से हटकर टीवी पर जा चुका था।
लेखक अमरीकी नीतियों पर भी टिप्पणी करते हैं। सिक्योवा और चिरोकी जनजातियों का जिक्र करते हैं और दिखाते हैं कि कैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़ा करने की प्रवृत्ति ने जनजातीय समाज को प्रभावित किया। इस हिस्से में इतिहास और भूगोल की परतें भी खुलती हैं और पाठक को एक अलग दृष्टि मिलती है।
आवरण और भूमिका
किताब का आवरण किसी पुराने संदूक से निकली तस्वीर जैसा लगता है। इसे देखकर ही अंदाजा हो जाता है कि यह किताब स्मृतियों की पोटली खोलने वाली है। भूमिका अशोक पाण्डे ने लिखी है। उन्होंने अपने अंदाज में पूरी किताब की आत्मा को उजागर किया है और पाठकों में यह विश्वास जगाया है कि यह पुस्तक पढ़ना सिर्फ एक अनुभव नहीं बल्कि एक अवसर है।
-हिमांशु जोशी