ताजमहल के साये में एक काला सच: 15 रुपये का भारत…जहाँ इतिहास की कमाई अरबों में, और इंसान की इज्जत 15 रुपये में

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नमस्कार! 15 रुपये के इस भारत में आपका स्वागत है। उस भारत में, जहाँ हम जी-20 की मेजबानी का डंका पीटते हैं, जहाँ डिजिटल इंडिया की रोशनी में हमारा चेहरा चमकता है, जहाँ चंद्रयान-3 से हम चांद पर सैर कराते हैं, लेकिन हमारी निगाहें उस छोटे से गणित पर नहीं जातीं, जो एक इंसान और इतिहास के बीच का फासला बताता है। यह कहानी कोई मनगढ़ंत किस्सा नहीं, यह है हमारे राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक, ताजमहल की सच्ची और शर्मनाक कहानी।

ताज की कमाई करोड़ों में, इमाम की कमाई 15 रुपये?

पहले बात ताजमहल की। यह वही स्मारक है, जिसे हम अपनी पहचान कहते हैं, जिसे दुनिया को दिखाने के लिए हम ‘अतुल्य भारत’ का नारा लगाते हैं। हर साल लाखों लोग इसे देखने आते हैं, लाइनें लगती हैं और सरकार के खजाने का मुंह भरता जाता है। 2018-19 में अकेले टिकट बिक्री से 86 करोड़ रुपये की कमाई हुई। 2022-23 में भी यह आंकड़ा 75 करोड़ के पार रहा। यानी रोज़ाना करीब 20-25 लाख रुपये की कमाई। ये वो पैसा है, जो सरकार को सीधे मिलता है।

अब बात कीजिए उसी ताजमहल परिसर में मौजूद मस्जिद की। जहाँ नमाज़ होती है, जहाँ इबादत होती है, जहाँ परंपराएं निभाई जाती हैं। इस मस्जिद के इमाम हैं सैयद सादिक अली। यह उनका खानदानी पेशा है। उनके परदादा के समय से यह सेवा चलती आ रही है। तीन पीढ़ियों से एक परिवार मस्जिद की जिम्मेदारी निभा रहा है।

लेकिन जब आप इनकी तनख्वाह सुनेंगे, तो शायद आपके मोबाइल की स्क्रीन पर लगी धूल भी शर्म से माथा झुका ले। इन इमाम साहब का वेतन है – 15 रुपये महीना। जी, सही पढ़ा आपने। सिर्फ 15 रुपये! इस हिसाब से साल भर की कमाई हुई 180 रुपये। और हाँ, यहाँ एक और छोटा सा ट्विस्ट है। यह मामूली रकम भी पिछले तीन साल से उन्हें नहीं मिली है।

सोचिए, 21वीं सदी के भारत में एक इंसान 15 रुपये की तनख्वाह पर जिंदा है, और वो भी तीन साल से बकाया है।

कौन-सा तर्क, कौन-सा हिसाब?

आप कहेंगे, यह कैसा हिसाब है? यह कौन-सा गणित है? एक तरफ सरकार के खजाने में रोज़ाना 20 लाख रुपये की बरसात होती है, और दूसरी तरफ एक इंसान के हक में 15 रुपये की बूंद भी नहीं गिरती। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI), जिसका कुल बजट 1000-1100 करोड़ रुपये है, वह हर साल अकेले ताजमहल की देखरेख पर 20-25 करोड़ रुपये खर्च करता है। यानी, ताजमहल अपनी कमाई से ASI के बजट का 7-8% हिस्सा अकेले निकालता है। फिर उसी ताजमहल के अंदर परंपरा निभाने वाले इंसान के लिए 15 रुपये की प्रतीकात्मक सैलरी भी क्यों नहीं?

एएसआई का तर्क है कि इमाम का वेतन “प्रतीकात्मक” है, क्योंकि ताजमहल एक संरक्षित स्मारक है, कोई धार्मिक स्थल नहीं। लेकिन यह कैसी प्रतीकात्मकता है? जब आप टिकट की असली कीमत लेते हैं, टैक्स असली लेते हैं, और बजट में असली रकम गिनते हैं, तो फिर वेतन प्रतीकात्मक क्यों? क्या सरकार के पास करोड़ों के हिसाब हैं, लेकिन 15 रुपये का हिसाब नहीं?

आज जब महंगाई का हवाला देकर टिकट के दाम बढ़ा दिए जाते हैं, तब इमाम के वेतन में महंगाई क्यों नहीं लगती? 19वीं सदी से चला आ रहा 15 रुपये का वेतन 21वीं सदी में भी वही क्यों है? क्या यह भारत की प्राथमिकताओं को नहीं दर्शाता? जहाँ हम इतिहास को चमकाने पर करोड़ों फूंक देते हैं, पर इतिहास के एक जीते-जागते हिस्से को जिंदा रखने लायक सम्मान भी नहीं देते?

ताजमहल की रोशनी में अंधेरा क्यों?

सैयद सादिक अली की मजबूरी उनकी जुबान से सुनिए। “मेरे परदादा के समय से यही 15 रुपये का वेतन चल रहा है।” वह कहते हैं कि बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाए, मजबूरी में मदरसे भेजना पड़ा। कई बार एएसआई अधिकारियों को चिट्ठियां लिखीं, शिकायतें कीं, लेकिन नतीजा वही – सिर्फ आश्वासन की घुट्टी।
और हाँ, एक और बात। पहले मस्जिद में सिर्फ जौहर और असर की नमाज़ होती थी। अब जुमा, ईद, बकरा ईद और रमजान की तरावीह की नमाज़ भी होती है। यानी जिम्मेदारियाँ बढ़ गईं, लेकिन वेतन वही रहा – और अब तो वह भी बंद है।

सोचिए, हम दुनिया के सामने अपनी विरासत का डंका पीटते हैं, लेकिन उसी विरासत के भीतर एक इंसान अपनी जिंदगी की लड़ाई 15 रुपये पर लड़ रहा है। यह सिर्फ इमाम की कहानी नहीं है, यह उस भारत की कहानी है, जहाँ इतिहास की मिठास पूरे विश्व को परोसी जाती है, लेकिन उसी के भीतर इंसान के हिस्से में कड़वाहट क्यों आती है?

जब आप अगली बार ताजमहल की रौशनी से अपनी आंखें चौंधचा लें, तो ज़रा उस इंसान को भी देखिए जो उसी रोशनी में अंधेरे में बैठा है। शायद आपको भी लगे कि यह कहानी सिर्फ सरकार के खजाने की चमक और इमाम की जेब में पड़ी धूल की नहीं, बल्कि हमारी अपनी इंसानियत के दिवालिएपन की भी है।

मोहम्मद शाहिद की कलम से

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