आगरा पुलिस ने मारते मारते तोड़े दो पैर और पांच डंडे, मानवाधिकार के नियमो को पूछने वाला कोई नही ?

Cover Story

​जब हम आगरा का नाम लेते हैं, तो जेहन में एक ही तस्वीर उभरती है। सफेद संगमरमर की वो इमारत, जिसे दुनिया मोहब्बत की निशानी कहती है। लेकिन आज हम जिस आगरा की बात करने जा रहे हैं, वहां मोहब्बत नहीं, बल्कि खौफ का रंग गहरा है। यह रंग संगमरमर जैसा सफेद नहीं, बल्कि खाकी वर्दी पर लगे खून जैसा गहरा लाल है। यह कहानी किसी बादशाह या बेगम की नहीं है, यह कहानी 35 साल के राजू की है। राजू, जिसके पैरों को कानून के रक्षकों ने इतना पीटा कि हड्डियां जवाब दे गईं। यह कहानी उस ‘सिस्टम’ की है, जो दावा तो सुरक्षा का करता है, लेकिन थाने की चारदीवारी के भीतर एक क@%%^खाने में तब्दील हो जाता है।

​आज हम एक ऐसे मामले की तह तक जाएंगे जो न सिर्फ पुलिसिया बर्बरता का एक और उदाहरण है, बल्कि हमारे लोकतंत्र के माथे पर लगा एक ऐसा कलंक है जिसे शायद कोई भी ‘ट्रांसफर’ या ‘सस्पेंशन’ का आदेश मिटा नहीं सकता। हम बात करेंगे उस दर्द की, उस चीख की, जो अछनेरा थाने की दीवारों से टकराकर दम तोड़ गई, लेकिन जिसकी गूंज अब अखबारों की सुर्खियों और हमारी अंतरात्मा को झकझोर रही है।

​पांच डंडे, दो पैर और एक बेबस नागरिक

तारीख 6 जून जगह करहारा गांव। किसान वनवीर सिंह की मौत हो जाती है। एक मौत, जो स्वाभाविक हो सकती थी या हत्या, यह जांच का विषय था। वनवीर के भाई हरेंद्र ने हत्या की आशंका जताई। पुलिस का काम था जांच करना, सबूत जुटाना, और सच तक पहुंचना। लेकिन आगरा पुलिस ने जांच का सबसे आसान और सबसे बर्बर तरीका चुना। उन्होंने राजू को उठाया, 35 साल का राजू, जो शायद उस वक्त अपने परिवार के साथ रहा होगा, या खेत में काम कर रहा होगा। उसे ‘पूछताछ’ के नाम पर ले जाया गया। ‘पूछताछ’—यह शब्द भारतीय पुलिसिया शब्दकोश में कितना डरावना है, यह राजू से बेहतर आज कोई नहीं बता सकता ।

​पुलिस को राजू से एक ही चीज चाहिए थी—जुर्म का इकबालिया बयान। “हां, मैंने मारा है।” बस इतना कहलवाने के लिए पुलिस ने जो किया, उसे सुनकर रूह कांप जाती है। राजू का बयान है कि उसे बेरहमी से पीटा गया। उसे उल्टा लटकाया गया। सोचिए, एक इंसान को जानवर की तरह उल्टा लटकाकर डंडों से पीटा जा रहा है। और यह पिटाई तब तक नहीं रुकी जब तक कि पुलिसवालों के पांच डंडे नहीं टूट गए। पांच डंडे! लकड़ी के वो मोटे डंडे, जो इंसान की हड्डियों से ज्यादा मजबूत होते हैं, वे राजू के शरीर पर बरसते-बरसते टूट गए, लेकिन पुलिसवालों का कहर नहीं टूटा।

नतीजा? राजू के दोनों पैर तोड़ दिए गए। एक इंसान, जो अपने पैरों पर चलकर थाने गया था, उसे स्ट्रेचर पर बाहर आना पड़ा। जब वह दर्द से बेहोश हो गया, तब पुलिस को लगा कि शायद अब ‘खेल’ ज्यादा हो गया है, और उसे किरावली के अस्पताल में भर्ती कराया गया। यह अस्पताल ले जाना दया नहीं थी, यह सिर्फ इसलिए था कि अगर वह थाने में मर जाता, तो एक और ‘कस्टोडियल डेथ’ का केस बन जाता। एक निजी मीडिया संस्थान ने जब इस खबर को प्रकशित करा तब जाकर प्रशासन की कुंभकर्णी नींद टूटी।

​आगरा के पुलिस कमिश्नर दीपक कुमार ने वही किया जो ऐसे मामलों में हमेशा किया जाता है—लीपापोती की रस्मी कार्रवाई। अछनेरा के एसीपी का ट्रांसफर कर दिया गया। इंस्पेक्टर और कुछ अन्य पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या राजू के टूटे हुए पैर एसीपी के ट्रांसफर से जुड़ जाएंगे? क्या उन पांच टूटे हुए डंडों का हिसाब सिर्फ एक सस्पेंशन ऑर्डर से पूरा हो जाएगा?

आगरा के इतिहास के आईने में वर्तमान का चेहरा

आगरा सिर्फ एक शहर नहीं है, यह एक विरोधाभास है। एक तरफ दुनिया भर के पर्यटक यहां ताजमहल देखने आते हैं, और दूसरी तरफ यहां के थानों में स्थानीय नागरिकों के साथ जो सुलूक होता है, वह मध्ययुगीन यातनाओं की याद दिलाता है। आगरा की भौगोलिक और प्रशासनिक स्थिति को समझना जरूरी है ताकि हम जान सकें कि आखिर ऐसे इलाके में पुलिस इतनी बेलगाम क्यों हो जाती है।

किरावली तहसील, जहां यह घटना हुई, आगरा जिले का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो किरावली की जनसंख्या 5 लाख से अधिक थी, जिसमें 81% लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं । यह एक ग्रामीण बहुल क्षेत्र है। और भारतीय पुलिस का चरित्र रहा है कि ग्रामीण और गरीब जनता के साथ उनका व्यवहार अक्सर सामंती होता है। राजू जैसे लोग, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से शायद बहुत सशक्त नहीं होते, पुलिस के लिए आसान शिकार यानी soft target बन जाते हैं। शहर के बीचों-बीच, पॉश इलाकों में पुलिस का व्यवहार अलग होता है, लेकिन जैसे ही आप देहात की तरफ बढ़ते हैं, वर्दी का रंग गहरा और भाषा अभद्र होती जाती है।

​किरावली और अछनेरा का इलाका राजस्थान सीमा के करीब है। यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से और भौगोलिक रूप से संवेदनशील रहा है। लेकिन संवेदनशीलता का मतलब यह तो नहीं कि नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया जाए। अछनेरा पुलिस स्टेशन, जिसका क्षेत्राधिकार इस मामले में आता है, आगरा पुलिस कमिश्नरेट का हिस्सा है । नवंबर 2022 में आगरा में पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली लागू की गई थी। दावा किया गया था कि इससे पुलिसिंग बेहतर होगी, निर्णय लेने की क्षमता बढ़ेगी और कानून व्यवस्था सुधरेगी ।

​लेकिन राजू का मामला इस दावे की धज्जियां उड़ाता है। कमिश्नरेट सिस्टम आने के बाद भी अगर “थर्ड डिग्री” ही जांच का एकमात्र तरीका है, तो फिर सिस्टम बदलने का क्या फायदा हुआ? एसीपी स्तर के अधिकारी के होते हुए, जिनके पास अब मजिस्ट्रियल पावर भी हैं, उनके नाक के नीचे थाने में एक युवक के पैर तोड़ दिए जाते हैं। क्या यह माना जाए कि कमिश्नरेट सिस्टम सिर्फ अफसरों की कुर्सियां और पदनाम बदलने के लिए लाया गया था, न कि पुलिसिंग की संस्कृति बदलने के लिए?

​2018 का वो डरावना अतीत अब इतिहास ने खुद को दोहराया

यह पहली बार नहीं है जब आगरा पुलिस के हाथ खून से सने हैं। इतिहास खुद को दोहराता है, और आगरा में तो यह बहुत जल्दी दोहराया गया। आइए 2018 के पन्नों को पलटते हैं। मामला सिकंदरा थाने का था। नाम—हेमंत कुमार उर्फ राजू गुप्ता। क्या अजीब संयोग है, उसका नाम भी राजू था। उसे चोरी के आरोप में उठाया गया था। आरोप था कि उसने अपने पड़ोसी के घर से 7 लाख के जेवर चुराए हैं ।

उस राजू (हेमंत कुमार) की मां रेनू लता ने बताया था कि उनका बेटा मानसिक रूप से कमजोर था। उसे तो चोरी का मतलब भी नहीं पता था। लेकिन पुलिस ने उसे उसकी बूढ़ी मां के सामने पीटा। मां गिड़गिड़ाती रही, रहम की भीख मांगती रही, लेकिन पुलिसवाले उसे तब तक मारते रहे जब तक कि वह मर नहीं गया। पुलिस ने बाद में कहानी बनाई कि उसे दिल का दौरा पड़ा था ।

​2018 में पूरा थाना बुक किया गया था। इंस्पेक्टर और सब-इंस्पेक्टर सस्पेंड हुए थे। लेकिन 2025 में हम फिर वहीं खड़े हैं। 2018 के राजू की मौत हो गई, 2025 का राजू अपाहिज हो गया। सात साल में क्या बदला? कुछ नहीं। वही थाने, वही वर्दी, वही डंडे, और वही बहाने। 2018 में भी पुलिस ने पहले मानने से इनकार किया था, फिर लीपापोती की कोशिश की। 2025 में भी मीडिया की खबर के बाद ही कार्रवाई हुई।

​यह तुलना यह साबित करने के लिए काफी है कि समस्या किसी एक “बुरे पुलिसवाले” की नहीं है। समस्या संस्थागत है। यह एक संस्कृति है जिसे थानों में पाला-पोसा जा रहा है। एक ऐसी संस्कृति जहां मानवाधिकारों की बात करना कमजोरी की निशानी माना जाता है और “थर्ड डिग्री” को “सख्त पुलिसिंग” का मेडल समझा जाता है। 2018 के मामले में सीआईडी (CID) की चार्जशीट में 17 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया था । लेकिन क्या उन 17 लोगों की सजा ने बाकी पुलिसवालों के मन में कोई डर पैदा किया? राजू का टूटा हुआ शरीर चीख-चीख कर कह रहा है—”नहीं”।

​पुलिस राजू को क्यों पीट रही थी? “जुर्म कबूलने” के लिए। यह एक लाइन हमारी पूरी जांच प्रक्रिया (Investigation System) की पोल खोल देती है। 21वीं सदी में, जब दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डीएनए प्रोफाइलिंग की बात कर रही है, हमारी पुलिस अभी भी “लठमार जांच” पर निर्भर है।

आखिर पुलिस “थर्ड डिग्री” का इस्तेमाल क्यों करती है? इसका सीधा जवाब है—अक्षमता और संसाधनों की कमी। जब पुलिस के पास वैज्ञानिक तरीकों से सबूत जुटाने की क्षमता नहीं होती, या जब उन पर केस सॉल्व करने का राजनीतिक या विभागीय दबाव होता है, तो वे सबसे छोटा रास्ता अपनाते हैं—आरोपी को इतना मारो कि वह वह सब कबूल ले जो उसने किया है, और वह भी जो उसने नहीं किया है।

​सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि “कस्टोडियल टॉर्चर” मानवता के खिलाफ अपराध है। लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं। भारत के फॉरेंसिक साइंस लैबोरेटरीज (FSL) की हालत खस्ताहाल है। 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की फॉरेंसिक लैब्स में 73% पद खाली थे । सोचिए, जिस राज्य की आबादी 20 करोड़ से ज्यादा हो, वहां वैज्ञानिक जांच करने वाले 73% वैज्ञानिक ही गायब हैं। जब लैब में स्टाफ नहीं होगा, तो रिपोर्ट आने में महीनों या सालों लगेंगे। 2024-2025 के आंकड़ों में भी कोई चमत्कारिक सुधार नहीं हुआ है, बल्कि रिक्तियों और काम के बोझ की खबरें आती रहती हैं ।

जब वैज्ञानिक रिपोर्ट नहीं मिलती, तो कोर्ट में केस साबित करना मुश्किल होता है। इसलिए पुलिस “कबूलनामे” पर जोर देती है, हालांकि पुलिस कस्टडी में दिया गया बयान कोर्ट में मान्य नहीं होता (सिवाय कुछ विशेष परिस्थितियों के)। यह एक विरोधाभास है। पुलिस मार-मार कर बयान लेती है, यह जानते हुए भी कि वह कोर्ट में टिकेगा नहीं। यह सिर्फ अपनी फाइल भरने और मीडिया में “केस सॉल्व्ड” का दावा करने के लिए किया जाता है।

राजू के मामले में भी यही हुआ। वनवीर सिंह की मौत की वैज्ञानिक जांच करने के बजाय, फिंगरप्रिंट्स, कॉल रिकॉर्ड्स, या साक्ष्यों (Circumstantial Evidence) को जोड़ने के बजाय, पुलिस ने राजू के शरीर को तोड़ने का विकल्प चुना। यह आलसी पुलिसिंग का सबसे क्रूर उदाहरण है।

​1996 में सुप्रीम कोर्ट ने डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था । कोर्ट ने गिरफ्तारी और हिरासत के दौरान पुलिस के आचरण के लिए 11 सूत्रीय दिशा-निर्देश जारी किए थे। ये गाइडलाइन्स पुलिसिया बर्बरता को रोकने के लिए “गीता-बाइबल” मानी जाती हैं। लेकिन अछनेरा थाने में उस रात क्या हुआ, उसे इन गाइडलाइन्स की कसौटी पर कसना जरूरी है।

गिरफ्तारी मेमो गाइडलाइन्स कहती हैं कि गिरफ्तारी के समय पुलिस को एक मेमो तैयार करना चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी का समय और तारीख हो, और उस पर एक गवाह (परिवार का सदस्य या प्रतिष्ठित व्यक्ति) के साइन हों। क्या राजू को उठाते वक्त ऐसा कोई मेमो बना था? या उसे बस जीप में ठूंस दिया गया?

परिजनों को सूचना- गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार या दोस्त को उसकी हिरासत के बारे में तुरंत सूचित करना अनिवार्य है । राजू के घरवाले शायद जानते थे कि पुलिस ले गई है, लेकिन क्या उन्हें औपचारिक सूचना दी गई?

मेडिकल जांच सबसे महत्वपूर्ण नियम—हर 48 घंटे में गिरफ्तार व्यक्ति की मेडिकल जांच होनी चाहिए। राजू को दो दिन तक टॉर्चर किया गया। क्या इन दो दिनों में किसी डॉक्टर ने उसे देखा? नहीं। उसे डॉक्टर के पास तब ले जाया गया जब वह बेहोश हो गया। यानी पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सीधे-सीधे कूड़ेदान में डाल दिया।

वकील से मिलने का अधिकार पूछताछ के दौरान आरोपी को अपने वकील से मिलने का अधिकार है। क्या राजू को यह बताया गया? क्या उसे वकील मुहैया कराया गया? जिस व्यक्ति को उल्टा लटकाया जा रहा हो, क्या वह “माई लॉर्ड” या “वकील साहब” को बुला सकता है?

​यह स्पष्ट है कि राजू के मामले में डी.के. बसु गाइडलाइन्स का पालन नहीं हुआ। यह “अदालत की अवमानना” (Contempt of Court) का सीधा मामला है। लेकिन क्या किसी पुलिसवाले को आज तक डी.के. बसु गाइडलाइन्स का पालन न करने के लिए जेल हुई है? बहुत कम। यही कारण है कि पुलिस को लगता है कि वे कानून से ऊपर हैं।

​राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) और राज्य मानवाधिकार आयोग (SHRC) का गठन इसलिए किया गया था ताकि वे नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सकें। लेकिन राजू जैसे मामलों में ये आयोग अक्सर “पोस्टमॉर्टम” करने वाली संस्थाएं बनकर रह गए हैं। घटना हो जाने के बाद नोटिस भेजना, रिपोर्ट मांगना, और कभी-कभार मुआवजा दिलवा देना—क्या यही इनका काम रह गया है?

​एनएचआरसी के आंकड़े डराने वाले हैं। 2024 में देश भर में 2,739 कस्टोडियल डेथ्स दर्ज की गईं । यानी हर रोज औसतन 7 से 8 लोग पुलिस या न्यायिक हिरासत में मर रहे हैं। और इसमें उत्तर प्रदेश का योगदान अक्सर सबसे ज्यादा होता है । ये सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, ये 2,739 राजुओं की कहानियां हैं।

​ग्लोबल टॉर्चर इंडेक्स 2025 में भारत को “हाई रिस्क” श्रेणी में रखा गया है । दुनिया हमें देख रही है। हम विश्व गुरु बनने का सपना देखते हैं, हम 5 ट्रिलियन डॉलर की इकॉनमी बनने की बात करते हैं, लेकिन हमारे थानों में आज भी आदिम युग की बर्बरता जारी है। एनएचआरसी के पास खुद के जांच दल बहुत सीमित हैं, और वे अक्सर पुलिस की रिपोर्ट पर ही निर्भर रहते हैं । पुलिस ही पुलिस की जांच करती है। “चोर के हाथ में तिजोरी की चाबी” देने जैसा हाल है।

​राजू के मामले में अब एनएचआरसी शायद नोटिस भेजेगा। डीजीपी से जवाब मांगा जाएगा। एक फाइल बनेगी। कुछ साल चलेगी। और फिर शायद राजू को कुछ हजार या लाख रुपये का मुआवजा मिल जाए। लेकिन क्या वह मुआवजा उसके उस आत्मसम्मान को लौटा पाएगा जिसे थाने के फर्श पर रौंदा गया? क्या वह उसके टूटे हुए पैरों का दर्द कम कर पाएगा?

​उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ सालों में “जीरो टॉलरेंस” और “बुलडोजर न्याय” की बहुत चर्चा हुई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपराध के खिलाफ सख्त रुख अपनाया है, जिसकी कई बार तारीफ भी हुई है। लेकिन “जीरो टॉलरेंस” का मतलब क्या है? क्या यह सिर्फ अपराधियों के लिए है, या उन पुलिसवालों के लिए भी है जो वर्दी पहनकर अपराधी बन जाते हैं?

​जब सरकार और समाज “त्वरित न्याय” या “एनकाउंटर कल्चर” का जश्न मनाने लगते हैं, तो पुलिस को एक गलत संकेत जाता है। उन्हें लगता है कि प्रक्रिया का पालन करना जरूरी नहीं है। “ठोक दो” की मानसिकता जब सिस्टम में घर कर जाती है, तो राजू जैसा निर्दोष व्यक्ति भी उसकी चपेट में आ जाता है। बुलडोजर जब चलता है, तो वह सिर्फ अवैध निर्माण नहीं गिराता, वह कई बार कानून के राज को भी मलबे में तब्दील कर देता है।

​ राजू के मामले में पुलिस कमिश्नर दीपक कुमार की कार्रवाई (एसीपी का तबादला, इंस्पेक्टर का सस्पेंशन) को क्या “जीरो टॉलरेंस” माना जाए? यह तो न्यूनतम प्रशासनिक कार्रवाई है। असली जीरो टॉलरेंस तब दिखेगी जब इन पुलिसकर्मियों पर भी उसी तरह मुकदमा चले जैसे किसी आम अपराधी पर चलता है। क्या उनके घर पर बुलडोजर चलेगा? यह एक व्यंग्यात्मक सवाल है, लेकिन यह सवाल सिस्टम के दोहरे मापदंड को उजागर करता है।

​अछनेरा एसीपी का ट्रांसफर और इंस्पेक्टर का सस्पेंशन—यह हेडलाइन अच्छी है। लेकिन इसके पीछे की हकीकत क्या है?

​सस्पेंशन यह सजा नहीं है। सस्पेंड होने पर पुलिसकर्मी को आधी सैलरी मिलती रहती है। उसे ड्यूटी पर नहीं जाना पड़ता। कुछ महीनों बाद, जब शोर थम जाता है, उसे बहाल कर दिया जाता है। उसकी पिछली सैलरी भी एरियर के रूप में मिल जाती है। यह एक तरह का ‘पेड हॉलिडे’ बन जाता है।

ट्रांसफर एक जिले से दूसरे जिले में भेजना या एक थाने से पुलिस लाइन भेजना सजा कैसे हो सकती है? अगर कोई डॉक्टर ऑपरेशन करते वक्त मरीज का पैर काट दे, तो क्या उसे दूसरे अस्पताल में ट्रांसफर किया जाता है? नहीं, उसका लाइसेंस रद्द होता है, उस पर केस चलता है। तो फिर पुलिसवाले के साथ ऐसा क्यों नहीं?

​राजू के मामले में, क्या पुलिसकर्मियों पर आईपीसी (अब भारतीय न्याय संहिता – BNS) की धारा 115 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाना) या धारा 109 (हत्या का प्रयास – अगर चोटें जानलेवा साबित हो सकती थीं) के तहत मुकदमा दर्ज हुआ? अगर नहीं, तो यह कार्रवाई सिर्फ जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए है।

प्रकाश सिंह मामले (2006) में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों के लिए 7 निर्देश दिए थे । उनमें से एक था “पुलिस शिकायत प्राधिकरण” का गठन, जो पुलिस के खिलाफ शिकायतों की स्वतंत्र जांच करे। उत्तर प्रदेश में यह प्राधिकरण कितना सक्रिय है?

क्या राजू या उसके परिवार को वहां जाने का मौका मिला? सच्चाई यह है कि पुलिस सुधारों को राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। पुलिस आज भी सत्ताधारी दल का हथियार और जनता का शासक बनी हुई है।

अब वह सवाल सवाल जो चुभेंगे नहीं, तो सोने भी नहीं देंगे
​हम अपनी शैली में कहें तो, “डरिए मत, बस सवाल पूछिए।” क्योंकि जब आप सवाल पूछना बंद कर देते हैं, तो लोकतंत्र मर जाता है।

कमिश्नर साहब से सवाल दीपक कुमार जी, आप आईपीएस हैं, आपने संविधान की शपथ ली है। आपके जिले में आपके मातहत एक आदमी के पैर तोड़ देते हैं। क्या सिर्फ तबादला कर देने से आपकी नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी पूरी हो गई? क्या आप सुनिश्चित करेंगे कि दोषी पुलिसवाले जेल जाएं?

सरकार से सवाल “सबका साथ, सबका विकास” का नारा देने वाली सरकार में क्या राजू का साथ देने वाला कोई है? “जीरो टॉलरेंस” नीति उस थानेदार पर लागू क्यों नहीं होती जिसने पांच डंडे तोड़ दिए?

​समाज से सवाल हम कब तक चुप रहेंगे? आज राजू है, कल आप हो सकते हैं, परसों आपका बेटा हो सकता है। जब पुलिस किसी “गैंगस्टर” का एनकाउंटर करती है तो हम तालियां बजाते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जो पुलिस कानून को ताक पर रखकर गैंगस्टर को मार सकती है, वही पुलिस कानून को ताक पर रखकर एक निर्दोष किसान या मजदूर के पैर भी तोड़ सकती है। वहशीपन का कोई “सिलेक्टिव” बटन नहीं होता।

​न्यायपालिका से सवाल मिलॉर्ड, आपकी गाइडलाइन्स की धज्जियां रोज उड़ाई जा रही हैं। अवमानना के नोटिस कब जारी होंगे? क्या डी.के. बसु का फैसला सिर्फ लॉ कॉलेजों में पढ़ाने के लिए है?

-मोहम्मद शाहिद की कलम से

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