संसद में बहस का असली मुद्दा: शोर और प्रतीकों से आगे, जनता की ज़िंदगी से जुड़े सवाल

अन्तर्द्वन्द

लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने का नाम नहीं है, बल्कि जनता की रोज़मर्रा की तकलीफों को सत्ता के सबसे ऊँचे मंच तक पहुँचाने की प्रक्रिया है। भारत में यह मंच संसद है, जहाँ हर चर्चा का केंद्र जनता की समस्याएँ और उनके समाधान होने चाहिए। दुर्भाग्यवश, बीते वर्षों में संसद की बहसें कई बार ऐसे विषयों में उलझती दिखीं, जिनका आम नागरिक के जीवन से सीधा कोई संबंध नहीं होता। ऐसे माहौल में जब कोई जनप्रतिनिधि सदन का रुख बदलकर असल मुद्दों की ओर ध्यान दिलाता है, तो वह केवल सवाल नहीं उठाता, बल्कि लोकतंत्र की गरिमा को भी पुनः स्थापित करता है।

इसी संदर्भ में राघव चड्ढा, आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद, की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय बन जाती है। उन्होंने हाल ही में संसद में जिन विषयों को उठाया, वे दिखाते हैं कि जब एक शिक्षित, युवा और संवेदनशील प्रतिनिधि सदन में बोलता है, तो बहस की दिशा ही बदल जाती है।

स्वास्थ्य व्यवस्था: इलाज नहीं, लूट का सिस्टम?

राघव चड्ढा ने संसद में निजी अस्पतालों की मनमानी और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर हो रही लूट को बेनकाब करने की कोशिश की। आज देश में करोड़ों परिवार ऐसे हैं जिनके लिए बीमारी केवल स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि आर्थिक तबाही बन जाती है। इलाज के दौरान मनमाने बिल, अनावश्यक जांच और प्रक्रियाएं आम आदमी को कर्ज के दलदल में धकेल देती हैं।

इसी से जुड़ा दूसरा गंभीर मुद्दा है हेल्थ इंश्योरेंस में धांधली. बीमा लेने के बावजूद जब जरूरत के वक्त क्लेम खारिज कर दिए जाते हैं या महीनों तक फाइलें अटकी रहती हैं, तो सवाल उठता है—यह व्यवस्था किसके लिए है? राघव चड्ढा ने इन सवालों को संसद में रखकर यह स्पष्ट किया कि स्वास्थ्य नीतियाँ केवल कागज़ों में नहीं, ज़मीन पर भी असरदार होनी चाहिए।

सड़क पर डर, टोल पर गुंडागर्दी

उन्होंने टोल प्लाजा पर बढ़ती गुंडागर्दी और अव्यवस्था का मुद्दा भी उठाया, जो हर उस नागरिक से जुड़ा है जो रोज़ाना सड़क पर सफर करता है। टोल देना अब केवल शुल्क चुकाने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि कई जगहों पर यह डर, बदसलूकी और दबंगई का अनुभव बन चुका है। सवाल यह है कि जब नागरिक नियमों का पालन करता है, तो व्यवस्था क्यों असफल हो जाती है? संसद में इस विषय पर चर्चा आम जनता को यह भरोसा देती है कि उनकी रोज़मर्रा की परेशानियाँ भी राष्ट्रीय मुद्दे हैं।

डिजिटल इंडिया और नया भेदभाव

डिजिटल युग में भारत को आगे ले जाने की बात तो बहुत होती है, लेकिन कंटेंट क्रिएटर्स के साथ हो रहे डिजिटल भेदभाव पर बहुत कम चर्चा होती है। लाखों युवा सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के जरिए न केवल अपनी पहचान बना रहे हैं, बल्कि रोजगार भी सृजित कर रहे हैं। इसके बावजूद एल्गोरिदम, नियमों की अस्पष्टता और पक्षपातपूर्ण नीतियाँ उनके भविष्य को अनिश्चित बना देती हैं। राघव चड्ढा ने इस मुद्दे को संसद में उठाकर यह संकेत दिया कि नई अर्थव्यवस्था के नए श्रमिकों को भी सुरक्षा और सम्मान मिलना चाहिए।

डिलीवरी बॉयज़: शहर की रफ्तार, पर हाशिए पर

उन्होंने डिलीवरी बॉयज़ की कम सैलरी, असुरक्षित कार्य परिस्थितियों और श्रम शोषण पर सवाल उठाकर एक ऐसे वर्ग की आवाज़ उठाई, जो आधुनिक शहरी जीवन की रीढ़ बन चुका है। तेज़ डिलीवरी, समय पर सेवाएँ—सब कुछ इन्हीं पर निर्भर है, लेकिन न वे स्थायी कर्मचारी माने जाते हैं, न उन्हें सामाजिक सुरक्षा मिलती है। संसद में इस मुद्दे का उठना इस बात का संकेत है कि विकास केवल आंकड़ों से नहीं, बल्कि श्रमिक के सम्मान से मापा जाना चाहिए।

यही है सार्थक राजनीति

यही अंतर होता है शोर वाली राजनीति और समाधान वाली राजनीति में। जब संसद में प्रतीकों, अनावश्यक विवादों और दिखावे की जगह जनता के जीवन से जुड़े सवाल उठते हैं, तभी लोकतंत्र मजबूत होता है।

राघव चड्ढा जैसे सांसद यह याद दिलाते हैं कि संसद का उद्देश्य सुर्खियाँ बटोरना नहीं, बल्कि नीतियों को मानवीय बनाना है। आज देश को ऐसी ही राजनीति की जरूरत है—जहाँ बहस का केंद्र सत्ता नहीं, समस्या हो; और लक्ष्य केवल आलोचना नहीं, समाधान।

अंततः संसद में चर्चा समोसे या प्रतीकों पर नहीं, बल्कि जनता की पीड़ा, अधिकार और भविष्य पर होनी चाहिए। यही लोकतंत्र की सच्ची आत्मा है, और यही वह रास्ता है जो भारत को वास्तव में मजबूत बना सकता है।

– शीतल सिंह “माया”

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