नियमों का चश्मा और संवेदनहीन व्यवस्था: जब दृष्टिबाधित बच्चों पर सबसे पहले चला डंडा

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आगरा में शिक्षा विभाग ने जब “कानून का चश्मा” पहनने का फैसला किया, तो उम्मीद थी कि अब फर्जी स्कूलों, अवैध कॉलेजों और शिक्षा के नाम पर चल रही दुकानों पर कार्रवाई होगी। लेकिन अफसोस, यह चश्मा भी उसी तरह निकला, जैसा अक्सर हमारे सिस्टम में होता है—कुछ को साफ दिखाने वाला और कुछ को पूरी तरह धुंधला कर देने वाला।

जैसे ही विभाग की आँखें खुलीं, सबसे पहले जो संस्था उन्हें स्पष्ट दिखाई दी, वह कोई आलीशान निजी स्कूल नहीं था, न ही मोटी फीस वसूलने वाला कोचिंग माफिया। बल्कि वह था दृष्टिबाधित बच्चों के लिए चलाया जा रहा एक सेवा-आधारित विद्यालय—सूर सरोवर पक्षी विहार क्षेत्र में संचालित सूरकुटी दृष्टिबाधित विद्यालय। आदेश जारी हुआ—तत्काल बंद किया जाए, क्योंकि विद्यालय “बिना मान्यता” के चल रहा है।

कानूनन बात सही मानी जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि कानून की याद केवल यहीं क्यों आई?

फर्जी स्कूलों पर नियमों का मोतियाबिंद

आगरा जनपद में वर्षों से दर्जनों नहीं, बल्कि सैकड़ों ऐसे स्कूल चल रहे हैं जिनके पास न मान्यता है, न प्रशिक्षित शिक्षक, न भवन मानक और न ही बच्चों की सुरक्षा के इंतजाम। कई स्कूल तो किराए के कमरों और गोदामों में शिक्षा का नाटक कर रहे हैं। कहीं बच्चों को डराकर फीस वसूली जाती है, तो कहीं अभिभावकों को बड़े-बड़े सपने दिखाकर ठगा जाता है।

इन स्कूलों पर शिक्षा विभाग की नजर क्यों नहीं पड़ती?

क्या वे सभी नियमों का पालन कर रहे हैं?

या फिर वहां नियमों की आँखों पर “प्रभाव” का काला चश्मा चढ़ा हुआ है?

दृष्टिबाधित बच्चों पर इतनी सख्ती क्यों?

जो बच्चे पहले से ही जीवन की सबसे बड़ी चुनौती, अंधकार से जूझ रहे हैं, उनके लिए बना एक आश्रय, एक उम्मीद, एक सीखने का केंद्र अचानक अपराध स्थल बना दिया गया। बिना यह सोचे कि इन बच्चों का भविष्य क्या होगा? इनके पास जाने के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था है या नहीं? क्या सरकार या प्रशासन इनके पुनर्वास की जिम्मेदारी लेगा?

ऐसा प्रतीत होता है मानो व्यवस्था यह संदेश देना चाहती हो कि सेवा और संवेदनशीलता कानून से कमतर हैं, और सबसे आसान निशाना वही है, जो सवाल उठाने या लड़ने की स्थिति में नहीं है।

मान्यता या मानवीयता?

कोई यह नहीं कह रहा कि नियम न हों। मान्यता आवश्यक है, निरीक्षण जरूरी है। लेकिन नियमों के साथ मानवीय दृष्टि भी उतनी ही जरूरी है। यदि विद्यालय में कमी थी, तो सुधार का अवसर दिया जा सकता था। मार्गदर्शन किया जा सकता था। अस्थायी मान्यता या विशेष अनुमति जैसे विकल्प मौजूद हैं। लेकिन यहां तो सीधे “बंद करो” का फरमान जारी कर दिया गया।

क्या यही संवेदनशील प्रशासन की पहचान है?

“टेबल के नीचे” चलती शिक्षा, ऊपर से दिखती सेवा

जिले के कई नामचीन स्कूलों की हकीकत किसी से छिपी नहीं। वहां सब कुछ “कागजों में सही” होता है और जमीन पर सब कुछ गलत। लेकिन वे सुरक्षित हैं, क्योंकि वहां व्यवस्था की आँखें जानबूझकर बंद रहती हैं।

दृष्टिबाधित बच्चों का स्कूल शायद इसलिए साफ दिख गया, क्योंकि वहां न मोटी फीस थी, न राजनीतिक संरक्षण, न ही कोई मजबूत लॉबी बस बच्चे थे, जरूरत थी और कुछ लोग थे जो सेवा कर रहे थे।

एक आवाज़ जो चुभती है

इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा जो बात चुभती है, वह है समाज की चुप्पी। बड़े-बड़े समाजसेवी संगठन, शिक्षा के ठेकेदार और मंचों पर भाषण देने वाले नेता सब मौन हैं। शायद इसलिए कि यह मुद्दा “लाभकारी” नहीं है।

इसी खामोशी में सपना गुप्ता की आवाज़ अलग से सुनाई देती है। न सत्ता का सहारा, न सिस्टम की मेहरबानी फिर भी सवाल पूछने का साहस। यह साबित करता है कि आज भी इस समाज में कुछ लोग हैं, जो अंधे सिस्टम को आईना दिखाने की हिम्मत रखते हैं।

कानून अंधा हो सकता है, व्यवस्था नहीं होनी चाहिए

कहा जाता है—कानून अंधा होता है। लेकिन व्यवस्था का अंधा होना सबसे बड़ा अपराध है। जब नियमों का इस्तेमाल कमजोरों को कुचलने और ताकतवरों को बचाने के लिए किया जाए, तब सवाल सिर्फ एक स्कूल का नहीं रहता, सवाल पूरे सिस्टम की नैतिकता पर खड़ा हो जाता है।

आज जरूरत इस बात की है कि फर्जी स्कूलों पर निष्पक्ष कार्रवाई हो, दृष्टिबाधित बच्चों के विद्यालय को सुधार और मान्यता का अवसर मिले और शिक्षा को व्यापार नहीं, जिम्मेदारी समझा जाए वरना इतिहास यही कहेगा इस सिस्टम में देखने वालों को कुछ नहीं दिखा और न देखने वालों पर सबसे पहले कार्रवाई हुई।

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