लोकतंत्र की अदालत में पत्रकारों पर अब रात का फैसला?

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क्या आपने कभी सोचा था कि एक रात को आपके घर के दरवाज़े पर कोई दस्तक दे और कहे कि अब से आपके बोलने की आज़ादी नहीं रही? क्या आपने सोचा था कि देश की अदालतें अब रात के अँधेरे में भी फैसला सुना सकती हैं? क्या अदालत में बिना आपके सुने, बिना नोटिस दिए, बिना तलब किए, आपको ईमेल के ज़रिए कोई फैसला सुनाया जा सकता है? ये वो सवाल हैं, जिनके जवाब अब हमें नहीं, बल्कि अदालतों और सरकारों को देने चाहिए।

बीती रात, 11:30 बजे, देश के कई पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को ईमेल पर एक आदेश भेजा गया। यह कोई आम ईमेल नहीं था, बल्कि एक फ़रमान था, जिसमें कहा गया था कि अडानी ग्रुप से जुड़े 11 वीडियो तुरंत डिलीट कर दिए जाएं। यह फरमान जिन पत्रकारों और चैनलों को मिला, उनमें रवीश कुमार, अभिसार शर्मा, ध्रुव राठी, अजीत अंजुम, प्रज्ञा, देशभक्त और न्यूज़लॉन्ड्री जैसे नाम शामिल हैं। ये वही पत्रकार हैं, जो लगातार सत्ता से सवाल पूछते रहे हैं, और जिनकी आवाज़ को दबाने की कोशिशें पहले भी कई बार हो चुकी हैं।

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस फ़रमान में यह भी कहा गया है कि अगर ये वीडियो पत्रकारों ने खुद डिलीट नहीं किए, तो YouTube खुद अपने सिस्टम से उन्हें हटा देगा। यानी, इस देश के पत्रकारों के पास अपनी ही सामग्री को बचाने का कोई अधिकार नहीं है। उनकी आवाज़, उनकी मेहनत, उनके बनाए वीडियोज़ अब सिर्फ एक “क्लिक” की दूरी पर हैं, जो कभी भी डिलीट किए जा सकते हैं। क्या यही है हमारा डिजिटल इंडिया? जहाँ पत्रकारों की उंगलियां अब उनके की-बोर्ड पर नहीं, बल्कि सरकार के इशारे पर नाच रही हैं?

यह मामला और भी पेचीदा तब हो जाता है, जब हम इसकी तह में जाते हैं। यह फैसला कोई सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का नहीं, बल्कि दिल्ली की रोहिणी कोर्ट का है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस फैसले की जानकारी पत्रकारों को तब दी गई, जब अदालत को जवाब देने की तारीख, 9 सितंबर, पहले ही बीत चुकी थी। यानी, 6 सितंबर 2025 को सीनियर सिविल जज अनुज कुमार सिंह ने अडानी समूह की मानहानि याचिका पर ‘ex parte’ अंतरिम आदेश पारित किया। यह एक ऐसा आदेश है, जिसमें प्रतिवादियों यानी पत्रकारों को बिना सुने ही फैसला सुना दिया गया। आदेश में कहा गया कि अगर पत्रकार 36 घंटे में वीडियो नहीं हटाते, तो YouTube, Google और Meta जैसे प्लेटफॉर्म्स उन्हें अपने आप हटा देंगे। क्या यह अदालत की कार्रवाई है या एक “क्लीन-अप ड्राइव” है?

इस पूरे मामले में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। 16 सितंबर की शाम को मंत्रालय ने कोर्ट के 6 सितंबर वाले ‘ex parte’ आदेश का हवाला देते हुए 138 YouTube वीडियो और 83 इंस्टाग्राम पोस्ट हटाने का नोटिस जारी किया। इन नोटिसों में यह भी कहा गया कि अगर 36 घंटे में इसका पालन नहीं हुआ, तो प्लेटफॉर्म्स खुद सामग्री को हटा देंगे। जिस याचिका में जवाब दाखिल करने की अंतिम तिथि 9 सितंबर थी, उसी का हवाला देकर 16 सितंबर को पत्रकारों को रात के 11:30 बजे ईमेल भेजा गया। क्या यही लोकतंत्र की प्रक्रिया है, जहाँ पत्रकारों को सिर्फ 36 घंटे का समय मिलता है अपनी पूरी मेहनत को मिटाने के लिए? क्या हम अब लोकतंत्र में नहीं, बल्कि ‘डेडलाइन’ और ‘डिलीशन’ के युग में जी रहे हैं?

इस पूरे घटनाक्रम से एक बात तो साफ है। अब हमारे देश में पत्रकारों की आवाज़, उनकी आज़ादी, और उनकी मेहनत पर “क्लिक” से नहीं, बल्कि “डिलीट” से वार किया जा रहा है। और यह सब कुछ अदालत के नाम पर हो रहा है, वह भी बिना सुने और बिना बताए। क्या यही है एक लोकतांत्रिक देश का नया चेहरा, जहाँ सवाल पूछना अब एक जुर्म बनता जा रहा है और सवालों के जवाब अब ई-मेल के इनबॉक्स में रात के अंधेरे में आते हैं?

-मोहम्मद शाहिद की कलम से

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