आगरा: नेपाल की राजधानी काठमांडू में सोमवार को जो कुछ हुआ, वह सिर्फ एक पड़ोसी देश की आंतरिक घटना नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतावनी है, जिसकी गूंज हमारे घरों और हमारे समाज तक पहुंच रही है। सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने के विरोध में सड़कों पर उतरे युवाओं और बच्चों पर हुई पुलिस कार्रवाई में 20 जिंदगियां चली गईं और 300 से ज़्यादा जख्मी हो गए। यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है: क्या हमारा समाज भी एक ऐसे ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़ा है, जो कभी भी फट सकता है? क्या नेपाल में हुआ विद्रोह सिर्फ एक ट्रेलर है, और पूरी फिल्म अभी बाकी है?
एक साधारण प्रतिबंध, एक असाधारण विद्रोह
नेपाल सरकार ने जब सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया, तो शायद उसे इतनी बड़ी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। लेकिन, इस फैसले ने एक ऐसी पीढ़ी को आंदोलित कर दिया, जो अपनी पहचान, अपनी दुनिया और अपनी अभिव्यक्ति को सोशल मीडिया से अलग करके देख ही नहीं सकती। ये बच्चे और युवा, जिन्हें Gen Z कहा जाता है, स्कूल से छूटते ही विरोध-प्रदर्शन में शामिल हो गए। क्या यह सिर्फ सोशल मीडिया पर बैन का विरोध था? या यह उस पीढ़ी की निराशा, बेचैनी और क्रोध का विस्फोट था, जो डिजिटल दुनिया में अपनी पहचान तलाशती है और जब उस पहचान पर खतरा आता है, तो वह सड़कों पर उतर आती है? यह भारत के लिए भी एक बड़ा सवाल है, क्योंकि हमारी 140 करोड़ की आबादी में 27.2 प्रतिशत युवा इसी Gen Z के हैं, जिनकी सोशल मीडिया तक पहुंच बेलगाम है।
लाइक्स की दुनिया, मौत की कगार
क्या सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन का साधन है? या यह एक ऐसा जाल है, जिसमें फंसकर हमारी युवा पीढ़ी अपनी जान गँवा रही है? छत्तीसगढ़ की 19 वर्षीय अंकुर नाथ की कहानी इसका एक दर्दनाक उदाहरण है।
प्यार में धोखा मिलने पर उसने इंस्टाग्राम पर लाइव आकर आत्महत्या कर ली और उसके 21 फॉलोअर्स यह सब देखते रहे। उसके माता-पिता बताते हैं कि वह रील्स और वीडियो बनाने में इतनी मशगूल थी कि उसे सिर्फ ‘अटेंशन’ चाहिए था। यह ‘अटेंशन’ पाने की ललक ही है जो मिशा अग्रवाल जैसे लाखों युवाओं को अंधेरे में धकेल रही है। 3.5 लाख से ज़्यादा फॉलोअर्स होने के बावजूद, 1 मिलियन का सपना पूरा न होने पर उसने अपनी ज़िंदगी खत्म कर ली। उज्जैन के 16 साल के प्रांशु ने ऑनलाइन मिली अभद्र टिप्पणियों को न झेल पाने पर मौत को गले लगा लिया।
यह सिर्फ सेलिब्रिटी बनने का मामला नहीं है। चेन्नई की एक माँ, जिसका बच्चा बहुमंज़िला इमारत से गिरकर बच गया था, सोशल मीडिया पर मिली अभद्र टिप्पणियों से इतनी आहत हुई कि उसने अपनी जान दे दी। बच्चा तो बच गया, लेकिन सोशल मीडिया के इस क्रूर व्यवहार ने एक माँ की ज़िंदगी छीन ली। ये घटनाएं सिर्फ़ एक झलक हैं कि कैसे ‘कनेक्टिविटी’ के नाम पर यह डिजिटल दुनिया हमें मानसिक और भावनात्मक रूप से तोड़ रही है।
क्या हम सब बारूद के ढेर पर बैठे हैं?
भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) के आँकड़ों के अनुसार, भारत में 100 करोड़ से ज़्यादा स्मार्टफोन हैं। शहरों में तो आबादी के मुकाबले 128% स्मार्टफोन हैं, और गाँवों में भी 58% तक पहुँच गए हैं। ये स्मार्टफोन सिर्फ़ कॉल करने के लिए नहीं हैं, बल्कि यह एक ऐसा गेटवे हैं जो हमारी युवा पीढ़ी को ऐसे खतरनाक स्टंट्स के लिए उकसाता है, जहाँ वे अपनी जान जोखिम में डालकर रील बनाते हैं। कोई चलती ट्रेन के बीच लेटता है, तो कोई हाईवे पर स्टंट करता है। क्या हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे हैं, जहाँ ‘लाइक’ और ‘व्यूज’ इंसान की ज़िंदगी से ज़्यादा कीमती हैं? क्या यह सोशल मीडिया की बेलगाम रफ्तार हमें एक ऐसे बारूद के ढेर पर नहीं बिठा रही, जहाँ एक छोटी-सी चिंगारी भी बड़ा विस्फोट कर सकती है?
कुछ तीखे सवाल जो हमें खुद से पूछने चाहिए
क्या हम उस समाज का निर्माण कर रहे हैं, जहाँ बच्चों और युवाओं के लिए सोशल मीडिया एक बुनियादी ज़रूरत बन गया है, जिसके बिना वे अपनी ज़िंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते?
जब कोई युवा सोशल मीडिया पर लाइव आकर आत्महत्या करता है और उसके फॉलोअर्स उसे बचाने की बजाय ‘लाइव’ देखते रहते हैं, तो क्या यह हमारे समाज की संवेदनहीनता का सबसे बड़ा प्रमाण नहीं है?
क्या ‘अटेंशन’ पाने की ललक ने हमारी युवा पीढ़ी को इतना खोखला कर दिया है कि वे अपनी पहचान और आत्म-सम्मान के लिए लाइक्स और फॉलोअर्स पर निर्भर हो गए हैं?
क्या हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो वर्चुअल दुनिया की आलोचना से इतनी कमजोर हो जाती है कि वास्तविक दुनिया में जीना छोड़ देती है?
जब भारत की 67.5 प्रतिशत आबादी किसी न किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय है, और वे हर दिन औसतन 145 मिनट उस पर बिताते हैं, तो क्या हम अपनी चेतना को एक अदृश्य हाथ में नहीं सौंप रहे?
नेपाल की घटना और भारत की ये दर्दनाक कहानियाँ, दोनों ही एक भयावह तस्वीर पेश करती हैं। सोशल मीडिया सिर्फ़ एक तकनीक नहीं, बल्कि एक ऐसा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हथियार बन गया है, जो हमारी युवा पीढ़ी को अंदर से खोखला कर रहा है। यह एक ऐसी लत है, जो उन्हें डिप्रेशन, आत्महत्या और आत्म-विनाश की ओर धकेल रही है। हमें यह समझना होगा कि यह मुद्दा सिर्फ़ सोशल मीडिया के दुरुपयोग का नहीं, बल्कि हमारे समाज की उस संरचना का है, जो हमारे बच्चों को इस डिजिटल खाई में गिरने से नहीं रोक पा रही है। हमें यह तय करना होगा कि हम एक ऐसा भविष्य चाहते हैं, जहाँ हमारी युवा पीढ़ी अपनी ज़िंदगी की कीमत पर लाइक्स और फॉलोअर्स के पीछे भागती रहे, या हम एक ऐसा रास्ता चुनेंगे जहाँ वे अपनी वास्तविक क्षमताओं को पहचानकर एक सार्थक जीवन जी सकें।
यह एक ऐसी लड़ाई है जो हमें बाहरी दुनिया से नहीं, बल्कि अपने अंदर चल रहे खालीपन से लड़नी है। क्या हम इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं?
मोहम्मद शाहिद की कलम से