आजकल ज़िंदगी की रफ़्तार इतनी तेज़ हो गई है कि हमें हर चीज़ दरवाज़े पर चाहिए। घर बैठे खाना मंगाना अब एक आदत बन गई है, जिसमें स्विगी और जोमैटो जैसे ऐप्स का अहम रोल है। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि इस ‘सुविधा’ की असली कीमत क्या है? हाल ही में एक ग्राहक के अनुभव ने इस सवाल को फिर से खड़ा कर दिया है। सोशल मीडिया पर एक पोस्ट ने लाखों लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या ऑनलाइन ऐप्स सिर्फ़ सुविधा दे रहे हैं या फिर मुनाफ़े के नाम पर ग्राहकों की जेब काट रहे हैं।
दो किलोमीटर की दूरी और 81% का फ़र्क़
7 सितंबर को, सुंदर (@SunderjiJB) नाम के एक यूज़र ने ‘X’ पर एक पोस्ट शेयर की, जिसने इंटरनेट पर हंगामा मचा दिया। उन्होंने स्विगी को टैग करते हुए सवाल किया कि रेस्टोरेंट से सीधे खाना लेने पर जो बिल ₹810 का था, वही खाना ऐप से ऑर्डर करने पर ₹1473 का क्यों पड़ा? यह 81% का चौंकाने वाला फ़र्क़ था, जबकि रेस्टोरेंट उनके घर से सिर्फ़ दो किलोमीटर दूर था। इस पोस्ट को 10 लाख से ज़्यादा व्यूज़ और 17 हज़ार से ज़्यादा लाइक्स मिले, जो यह दिखाता है कि यह सिर्फ़ एक व्यक्ति की समस्या नहीं, बल्कि एक साझा अनुभव है।
सुंदर ने अपनी पोस्ट में दोनों बिलों के सबूत भी शेयर किए। रेस्टोरेंट में ₹20 का मिलने वाला पराठा (प्रति पीस) ऐप पर ₹70 का था। इसी तरह, ‘चिकन 65’ जो रेस्टोरेंट में ₹150 का था, ऐप पर ₹240 का था। ‘चिकन लॉलीपॉप’ और ‘चिकन थोक्क बिरयानी’ की क़ीमतों में भी ज़मीन-आसमान का अंतर था। इससे यह साफ़ हो गया कि ऐप पर खाने की क़ीमत सिर्फ़ डिलीवरी चार्ज की वजह से नहीं बढ़ी थी, बल्कि इसमें कई छिपे हुए ख़र्च शामिल थे, जैसे- मेनू मार्कअप, प्लेटफ़ॉर्म कमीशन, पैकेजिंग चार्ज और टैक्स।
सुविधा का व्यापार और उपभोक्ता का सच
यह मामला सिर्फ़ एक बिल का नहीं है, यह उस पूरे ऑनलाइन व्यापार मॉडल पर सवाल उठाता है जहाँ सुविधा एक महँगा उत्पाद बन गई है। यह 81% की बढ़ोतरी सिर्फ़ डिलीवरी चार्ज नहीं है; यह एक पूरा इकोसिस्टम है जहाँ रेस्टोरेंट को कमीशन देना होता है, और वे इस ख़र्च को ग्राहकों पर ही डाल देते हैं। कई यूज़र्स ने इस पर प्रतिक्रिया दी। कुछ ने कहा कि लोग पैसे देते हैं, इसलिए ऐप्स चार्ज करते हैं, जबकि कुछ ने कहा कि रेस्टोरेंट ही ऑनलाइन क़ीमतें तय करते हैं। लेकिन क्या इस पूरे खेल में ग्राहक की जेब सबसे ज़्यादा नहीं कटती?
यह एक ऐसा बाज़ार है जहाँ ग्राहकों को लगता है कि वे समय और मेहनत बचा रहे हैं, जबकि असल में वे अपनी जेब से एक बड़ी क़ीमत चुका रहे हैं। यह ‘कन्वीनिएंस’ नहीं, बल्कि एक तरह का ‘कन्वीनिएंस टैक्स’ है। क्या यह जायज़ है कि सिर्फ़ दो किलोमीटर की दूरी के लिए ग्राहक को ₹663 अतिरिक्त चुकाने पड़ें? क्या यह एक ऐसा बाज़ार बन गया है जहाँ प्रतिस्पर्धा की जगह एकाधिकार पनप रहा है और ग्राहकों के पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं?
क्या हम आलसी हो गए हैं?
सवाल यह नहीं है कि ऐप हमें खाना ऑर्डर करने के लिए मजबूर करते हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या हमें इतनी महंगी सुविधा की ज़रूरत है? क्या हम इतने आलसी हो गए हैं कि कुछ मिनट के समय की बचत के लिए 81% ज़्यादा पैसे देने को तैयार हैं? क्या यह बाज़ारवाद का एक नया चेहरा है, जहाँ हमें बताया जाता है कि हम ‘पैसे’ से ‘समय’ ख़रीद रहे हैं, जबकि असल में हम सिर्फ़ अपनी ही जेब से पैसे निकलवा रहे हैं?
सुविधा की असली क़ीमत
ऑनलाइन फ़ूड डिलीवरी ने हमारी ज़िंदगी को आसान ज़रूर बनाया है, लेकिन इस आसानी की एक क़ीमत है, और यह क़ीमत कई बार बहुत ज़्यादा हो जाती है। सुंदर की पोस्ट ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या हम अपनी आदतों को लेकर जागरूक हैं? हमें यह समझना होगा कि सुविधा हमेशा मुफ़्त नहीं आती, लेकिन उसकी क़ीमत इतनी भी ज़्यादा नहीं होनी चाहिए कि वह ‘सुविधा’ न रहकर ‘शोषण’ बन जाए। यह समय है कि हम इन प्लेटफ़ॉर्म्स से पारदर्शिता की माँग करें और यह सवाल पूछें कि आखिर ‘सुविधा’ की असली क़ीमत क्या है?
-मोहम्मद शाहिद की कलम से