शब्दों का कारोबार: जब माँ पर शुरू हुई राजनीति….

अन्तर्द्वन्द

आगरा बीजेपी महिला मोर्चा ने शुरू की राजनीति, कॉग्रेस कार्यालय को घेरने की नकाम कोशिश

कहां माफी मांगे राहुल नहीं तो देश में रहने नहीं दिया जाएगा: देश से निकलाना हुआ इतना आसान की अब बीजेपी कार्यकर्ता निकाल देगे देश से बाहर

चुनाव का मौसम आते ही देश में हर बात, हर बयान, और हर भावना का मोल-भाव शुरू हो जाता है। कोई मुद्दा हो या ना हो, मुद्दा बना दिया जाता है। दरभंगा में एक रैली के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की माँ पर की गई एक टिप्पणी ने पूरे देश में एक नई राजनीतिक जंग छेड़ दी है। इस टिप्पणी के बाद आगरा बीजेपी महिला मोर्चा सड़क पर उतर आई और कांग्रेस से माफी की मांग कर रही है। लेकिन इस शोर-शराबे के बीच कई सवाल उठते हैं। क्या यह केवल एक बयान का मामला है, या यह हमारी राजनीति की गिरती हुई भाषा और नैतिकता का प्रतिबिंब है?

मामला बिहार के दरभंगा का है, जहाँ कांग्रेस की एक रैली में मंच के सामने भीड़ में मौजूद एक व्यक्ति ने प्रधानमंत्री मोदी की माँ के लिए कुछ अपशब्द कहे। इन शब्दों को माइक ने पकड़ लिया और कैमरों ने उस व्यक्ति को रिकॉर्ड भी किया। इसके तुरंत बाद, पुलिस ने कार्रवाई की और उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया। वह फिलहाल 14 दिन की न्यायिक हिरासत में है।

लेकिन जैसे ही यह खबर सामने आई, राजनीति का खेल शुरू हो गया। आगरा में बीजेपी महिला मोर्चा ने कांग्रेस कार्यालय के बाहर जोरदार प्रदर्शन किया। उन्होंने कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ नारे लगाए और राहुल गांधी से माफी की मांग की।

बीजेपी महिला मोर्चा की महानगर अध्यक्ष उपमा गुप्ता ने कहा कि कांग्रेस ने प्रधानमंत्री की माँ को अपशब्द कहकर “मातृ शक्ति” का अपमान किया है। उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि अगर राहुल गांधी माफी नहीं माँगते हैं, तो उन्हें भारत में रहने नहीं दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह बात सिर्फ प्रधानमंत्री की माँ की नहीं, बल्कि देश की हर माँ की है।

यहाँ एक बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि अब देश में किसको रहना है या नहीं रहना है यह कार्यकर्ता तय करेंगे

यहाँ तक तो बात ठीक लगती है, हर पार्टी अपने नेता के सम्मान में खड़ी होती है। लेकिन खबर में एक और मोड़ आता है। पुलिस की शुरुआती जाँच में यह सामने आया कि जिस व्यक्ति ने यह टिप्पणी की थी, वह न तो कांग्रेस का कोई पदाधिकारी था, न ही वह कांग्रेस का कार्यकर्ता था। जब यह टिप्पणी की गई, उस वक्त राहुल गांधी वहाँ मौजूद भी नहीं थे और न ही यह बात मंच से बोली गई थी। यह भीड़ में से किसी की व्यक्तिगत टिप्पणी थी। लेकिन राजनीति में सच और झूठ के बीच की दूरी अक्सर कम हो जाती है।

यहाँ असली समस्या उस टिप्पणी के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी की है। बीजेपी महिला मोर्चा का कहना है कि यह प्रधानमंत्री की माँ का अपमान है, जबकि जाँच से पता चलता है कि यह टिप्पणी जिस व्यक्ति ने की थी, जिसका कांग्रेस या राहुल गांधी से कोई सीधा संबंध नहीं है। फिर भी इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया जा रहा है।

यह एक ऐसा मामला है जिसे अपनी सुविधानुसार मोड़ा जा रहा है। एक तरफ, एक व्यक्ति ने भीड़ में अपशब्द कहे। दूसरी तरफ, उसी बात को लेकर एक राष्ट्रीय पार्टी का एक मोर्चा दूसरी राष्ट्रीय पार्टी के सबसे बड़े नेता से माफी की मांग कर रहा है। यह दिखाता है कि किस तरह हमारे समाज में राजनीतिक लाभ के लिए किसी भी घटना को तोड़-मरोड़कर पेश किया जा सकता है।

यहाँ पर हमारे मन में कुछ सवाल उठते हैं।

अगर एक व्यक्ति के बयान के लिए किसी नेता से माफी माँगी जा सकती है, तो क्या देश की राजनीति में माफ़ी की एक नई परंपरा शुरू हो गई है?

आज प्रधानमंत्री की माँ पर टिप्पणी के लिए हंगामा हो रहा है, यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि माँ तो आखिर माँ होती है। लेकिन क्या हमें यह भी याद है कि हमारे प्रधानमंत्री ने पिछले 23 सालों में दूसरी माताओं और महिलाओं के लिए क्या-क्या कहा है?

क्या नरेंद्र मोदी ने कभी किसी की मां का सम्मान किया?

2002 के गुजरात दंगों के बाद उन्होंने मुस्लिम मांओं को क्या कहा था? “बच्चा पैदा करने की मशीन.” क्या एक मां सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन है? उसमें ममता, भावनाएं नहीं होतीं? अगर आज उन्हें अपनी मां की गाली से दुख हुआ है, तो क्या उन्हें उन मांओं से माफी नहीं मांगनी चाहिए जिन्हें उन्होंने ‘मशीन’ कहा था? क्या तब किसी बीजेपी महिला मोर्चा ने धरना दिया था? क्या उस समय भी माफ़ी की मांग उठी थी?*

​यह सिलसिला यहीं नहीं रुका.

क्या 2007 सोनिया गांधी को ‘जर्सी गाय’ और राहुल गांधी को ‘हाइब्रिड बछड़ा’ कहकर एक माँ और उसके बच्चे का अपमान नहीं किया गया था? क्या यह एक मां और उसके दूध का अपमान नहीं था, जिसे पीकर हम सब ने आंखें खोली हैं? क्या तब इस देश की ‘मातृ शक्ति’ आहत नहीं हुई थी?

2012 में उन्होंने शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर को “50 करोड़ की गर्लफ्रेंड” कहा. क्या किसी महिला की कीमत लगाना और उसके रिश्ते का सार्वजनिक तौर पर मज़ाक उड़ाना सही था? क्या तब भी किसी को लगा था कि ये बात सिर्फ सुनंदा पुष्कर की नहीं, देश की हर महिला की है?

2013 में उन्होंने ‘ब्यूटी कॉन्शस’ मांओं पर टिप्पणी की जो अपने बच्चों को दूध नहीं पिलातीं.

इसके बाद उन्होंने मुसलमानों की तुलना कुत्ते के बच्चे से की. मतलब, एक मुस्लिम मां कुत्ते के बच्चे को जन्म देती है.

2018 में उन्होंने सोनिया गांधी को “कांग्रेस की विधवा” कहा.

क्या ममता बनर्जी को ‘दीदी ओ दीदी’ या रेणुका चौधरी को ‘सूपनखा’ जैसे शब्दों से महिला सशक्तिकरण का सम्मान हुआ?

2015 में नीतीश कुमार के DNA को खराब बताया.

2020 में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) पर लड़कियों की सप्लाई का आरोप लगाया.

​यह तो सिर्फ कुछ उदाहरण हैं.

क्या यह सच नहीं है कि भारतीय राजनीति में भाषा के स्तर को सबसे निचले पायदान पर ले जाने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं? उन्हीं के द्वारा बोए गए कटु शब्दों की फसल आज उन्हीं के आंगन में कट रही है।

यह सच है कि किसी भी व्यक्ति को, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या आम नागरिक, किसी की माँ के लिए अपशब्द नहीं कहने चाहिए। यह एक निंदनीय घटना है। लेकिन क्या इस घटना को राजनीतिक हथियार बनाकर अपनी सुविधा के अनुसार इस्तेमाल करना सही है?

जब भाषा की मर्यादा को खुद ही तार-तार कर दिया जाता है, तो फिर नैतिकता के किस मंच से हम दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं? यह घटना सिर्फ एक बयान की नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों की गिरावट की कहानी है। यह दिखाता है कि हम सिर्फ अपनी सुविधा के अनुसार ही माँ का सम्मान करते हैं। जब बात अपने दल की आती है, तो माँ ‘मातृ शक्ति’ बन जाती है, और जब बात दूसरे दल की आती है, तो माँ ‘बच्चा पैदा करने की मशीन’ या ‘जर्सी गाय’ बन जाती है।

सवाल यह है कि क्या हम इस राजनीतिक पाखंड से ऊपर उठकर एक ऐसी राजनीति का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ माँ सच में माँ हो, और राजनीतिक दल अपने शब्दों की जिम्मेदारी लें? शायद यही वह सवाल है जो हमारी राजनीति की दिशा तय करेगा।

लोग कह रहे हैं कि आज नरेंद्र मोदी सत्ता के कवच में सुरक्षित हैं. लेकिन जिस तरह उन्होंने राजनीति में कटुता और शब्दों को निम्न स्तर पर पहुंचाया है, उसका परिणाम उन्हें कभी न कभी तो भुगतना होगा. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता भी थे, जिन्होंने भाषा की गरिमा बनाए रखी. लेकिन गुजरात के इन दो नेताओं ने उस विरासत को तार-तार कर दिया.

मोहम्मद शाहिद

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