क्या भारत की नई ‘राजनीतिक डिक्शनरी’ में बापू का स्थान अब सावरकर से नीचे है?

अन्तर्द्वन्द

आगरा — सत्ता का रंग ऐसा होता है कि वह हर चीज़ को अपनी सुविधा के अनुसार ढाल लेता है। इतिहास, भूगोल, यहाँ तक कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की तस्वीरें भी। और जब सत्ता के पास ‘प्रशासनिक’ और ‘वैचारिक’ दोनों तरह की बैसाखियाँ हों, तो फिर क्या कहने! पेट्रोलियम मंत्रालय के एक ताज़ा पोस्टर ने एक बार फिर से इस बात को साबित कर दिया है कि इतिहास को अपने हिसाब से पेश करने की होड़ किस हद तक जा सकती है।

समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने इसी ‘इतिहास की हेरा-फेरी’ के ख़िलाफ़ आज आगरा के गांधी स्मारक पर 1 बजे धरना देने का एलान कर दिया है । उनका आरोप है कि 15 अगस्त को पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा जारी किए गए एक पोस्टर में महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह की तस्वीरों को विनायक दामोदर सावरकर की तस्वीर के नीचे रखा गया। क्या अब यही सरकार का नया आज़ादी का अमृत महोत्सव है, जहाँ आज़ादी की लड़ाई में सबसे आगे रहने वालों को पीछे धकेला जा रहा है?

मानसिक विकृति’ या ‘वैचारिक प्रयोग’?

सुमन ने इस हरकत को ‘मानसिक विकृति’ का नाम दिया। लेकिन क्या यह सिर्फ एक मानसिक विकृति है या एक सोचा-समझा प्रयोग? एक ऐसा प्रयोग, जहाँ एक विशेष विचारधारा के नायकों को गांधी, बोस और भगत सिंह से भी बड़ा दिखाया जा रहा है। एक ऐसी सरकार, जो खुद को राष्ट्रवाद का ठेकेदार कहती है, क्या वो ये भूल गई कि देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले बापू को हर भारतीय अपने माथे पर रखता है? या फिर अब ये माथे भी बदले जा चुके हैं?

सांसद सुमन ने कहा कि 23 अगस्त को भी उन्होंने आरएसएस पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा कि यह सरकार आरएसएस की बैसाखियों पर टिकी है और आरएसएस का आदर्श हिटलर है। क्या यही वजह है कि सरकार अब उसी तानाशाही विचार को हर जगह क्रियान्वित करने में लगी है? लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को दबाने के लिए ईडी और सीबीआई का जिस तरह से इस्तेमाल हो रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है।

सरकार की ‘सज़ा’ और ‘मुआवज़े’ की नीति

सुमन ने राज्यसभा में सरकार के जवाब का हवाला देते हुए बताया कि पिछले 10 सालों में ईडी ने 193 विपक्षी नेताओं पर मुक़दमे चलाए, लेकिन सिर्फ़ दो को ही सज़ा हुई। क्या इसका मतलब ये नहीं है कि ये एजेंसियां राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने का टूल बन गई हैं? ये कैसी न्याय प्रणाली है, जहाँ सज़ा का औसत सिर्फ़ 1 प्रतिशत है, लेकिन मुक़दमों का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है?

और इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि जिन 25 बड़े नेताओं पर गंभीर आर्थिक अपराधों के मुक़दमे चल रहे थे, उन्हें भाजपा में शामिल करा लिया गया। और उनमें से 23 नेताओं के मुक़दमे ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। यह कैसा गंगा स्नान है, जहाँ सत्ता की पार्टी में जाते ही सारे पाप धुल जाते हैं? क्या अब ‘दोषमुक्ति’ का सर्टिफिकेट अदालतें नहीं, बल्कि राजनीतिक दल देंगे?

रामजीलाल सुमन का यह धरना शायद सिर्फ एक पोस्टर के विरोध में नहीं है। यह उन सारे सवालों का प्रतिनिधित्व करता है, जो आजकल हमारे लोकतंत्र के हर कोने से उठ रहे हैं। क्या देश की नई ‘राजनीतिक डिक्शनरी’ में मूल्यों और सिद्धांतों को बदल दिया गया है? और क्या हमारे इतिहास को अब ‘फोटोशॉप’ करके दिखाया जाएगा?

मोहम्मद शाहिद की कलम से

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