आगरा में 80 मिनट के गोल्डन पीरियड का फायदा उठाएगा खास: क्या आम आदमी की जान की कीमत नहीं?

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आगरा: एक शाम आगरा में एक सैनिक की जिंदगी बचाने के लिए जैसी तत्परता और व्यवस्था देखने को मिली, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। एक तरफ जहां सेना के एक जवान को दिल का दौरा पड़ने पर 80 मिनट के ‘गोल्डन पीरियड’ में स्टेंट डालकर उनकी जान बचाई गई, वहीं दूसरी तरफ इसी शहर के आम नागरिक घंटों लाइन में खड़े रहने के बाद भी इलाज नहीं पा पाते। क्या यह देश सिर्फ खास लोगों के लिए बना है? क्या आम आदमी की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है?

खेरिया आर्मी क्षेत्र में ड्यूटी के दौरान एक सैनिक को अचानक दिल का दौरा पड़ा। उन्हें तुरंत मिलिट्री हॉस्पिटल ले जाया गया। वहां खून के थक्के को घोलने के लिए थ्रोम्बोलिसिस किया गया, लेकिन दो घंटे बाद उनकी हालत बिगड़ गई। सीने में तेज दर्द फिर शुरू हो गया।

इसके बाद मिलिट्री हॉस्पिटल से सीधे एसएन मेडिकल कॉलेज की सुपर स्पेशियलिटी विंग में कार्डियोलॉजिस्ट डॉ. बसंत कुमार गुप्ता से संपर्क किया गया। शाम 4.30 बजे तक कैथ लैब का स्टाफ और कर्मचारी जा चुके थे, लेकिन एक फोन कॉल पर उन्हें वापस बुलाया गया। मेजर डॉक्टर रोहित जैन अपनी टीम के साथ शाम पांच बजे सैनिक को लेकर एसएन मेडिकल कॉलेज पहुंचे। मरीज को सीधे कैथ लैब में ले जाया गया। डॉ. बसंत गुप्ता और डॉ. सौरभ नागर ने मिलकर सिर्फ 80 मिनट में एंजियोग्राफी कर स्टेंट डाला और सैनिक की जान बचा ली। मिलिट्री हॉस्पिटल तो मरीज को एयरलिफ्ट करने की तैयारी में था, लेकिन एसएन मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. प्रशांत गुप्ता ने बताया कि यहां सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं।

ये 80 मिनट, क्या आम आदमी के लिए भी हैं?

यह खबर सुनकर वाकई सुकून मिलता है कि एक सैनिक की जान बच गई, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह ‘गोल्डन पीरियड’ आम नागरिक को भी मिलता है? क्या एक आम आदमी जिसे दिल का दौरा पड़ा हो, उसे भी शाम 4.30 बजे के बाद फोन करके डॉक्टरों और स्टाफ को वापस बुला लिया जाएगा?

आइए, जरा जिला अस्पताल और एसएन मेडिकल कॉलेज की हकीकत से रूबरू होते हैं। यहां सुबह-सुबह मरीज़ों और उनके तीमारदारों की लंबी-लंबी लाइनें लग जाती हैं। एक रुपये की पर्ची बनवाने के लिए दो-दो घंटे लग जाते हैं। अगर किसी तरह पर्ची बन भी जाए, तो डॉक्टरों के चैंबरों के बाहर एक और लंबी लाइन आपका इंतज़ार कर रही होती है। कोई डॉक्टर का इंतज़ार कर रहा है, तो कोई लाइन खत्म होने का। और जब तक आपकी बारी आती है, तब तक दोपहर के 2 या 3 बज जाते हैं और अक्सर चैंबर बंद हो जाते हैं। नतीजा? मायूसी और अगले दिन फिर उसी जद्दोजहद में शामिल होने की मजबूरी।

आगरा के सरकारी अस्पतालों कैमरा क्यों वर्जित है?

आगरा शहर की एक और विडंबना देखिए। अगर कोई पत्रकार यहां की अव्यवस्था दिखाने के लिए कैमरा निकाल ले, तो उसका अंजाम क्या होता है, यह सब जानते हैं। पत्रकार को अस्पताल से बाहर निकाल दिया जाता है, कैमरे छीने जाते हैं और वीडियो डिलीट करवा दी जाती है।
आखिर क्या छिपाया जाता है इन अस्पतालों में? जब हमारे डॉक्टर इतनी मेहनत करते हैं, तो उनकी मेहनत को कैमरे में कैद क्यों नहीं किया जा सकता? क्या हमारी अव्यवस्था, हमारी मजबूरियां, हमारे लाचार मरीज कैमरों के सामने नहीं आ सकते?

यह ठीक है कि हमारे देश के सैनिक हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन क्या एक आम नागरिक की कोई कीमत नहीं? क्या उनके 80 मिनट की कीमत नहीं? यह सवाल हर उस नागरिक के मन में है, जो कभी न कभी इन सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्था का शिकार हुआ है। उम्मीद है कि कभी कोई ऐसा दिन आएगा जब इस देश में हर नागरिक की जान एक सैनिक की जान जितनी ही कीमती मानी जाएगी। क्या ऐसा होगा? यह सवाल हम आपके लिए छोड़ जाते हैं।

मोहम्मद शाहिद की कलम से

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