टिकटॉक की ‘वापसी’: क्या यह सिर्फ एक तकनीकी गड़बड़ी है या चीन से ‘बदला’ हुआ प्रेम?

अन्तर्द्वन्द

दिल्ली: तो जनाब, एक बार फिर वही पुरानी कहानी। चीन से आया था एक तूफ़ान, नाम था टिकटॉक। 2020 में गलवान में कुछ हुआ और हमारे देश की सरकार ने एक झटके में 59 चीनी ऐप्स को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का हवाला देकर बैन कर दिया। वाह! क्या दिन थे वो भी। देश की संप्रभुता और सुरक्षा की बात सुनकर सीना चौड़ा हो गया था। लेकिन, ये क्या? दो साल बाद, अब वही टिकटॉक फिर से सुर्ख़ियों में है। कुछ लोगों ने दावा किया कि वेबसाइट खुल रही है और फिर क्या था, पूरे सोशल मीडिया पर हल्ला मच गया।

सवाल ये है कि अगर सरकार का दावा है कि बैन अभी भी लागू है, तो ये वेबसाइट खुली कैसे? क्या यह महज़ एक तकनीकी ग़लती है, जैसा कि कहा जा रहा है? या फिर कुछ और ही खिचड़ी पक रही है? क्योंकि ऐसी तकनीकी ग़लती 2022 में भी हो चुकी है। तो क्या ये ग़लती जानबूझकर की जाती है ताकि माहौल बनाया जा सके? क्या हम इतने भोले हैं कि हर बार ऐसी “तकनीकी गड़बड़ी” पर विश्वास कर लें?

देश की सुरक्षा का सवाल और सरकार की ‘सफाई’

सरकार ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि “सोशल मीडिया पर चल रही खबरें झूठी और भ्रामक हैं।” उनका कहना है कि उन्होंने बैन हटाने का कोई आदेश जारी नहीं किया है। अच्छा, ठीक है। लेकिन सवाल ये है कि अगर बैन इतना सख़्त है, तो वेबसाइट का खुलना ही क्यों? क्या हमारी सुरक्षा के इंतज़ाम इतने कमज़ोर हैं कि कोई भी चीनी कंपनी जब चाहे तब अपनी वेबसाइट खोल सकती है? क्या ये सुरक्षा सिर्फ फ़ाइलों पर कागज़ी कार्रवाई तक ही सीमित है?

जिस तरह 2020 में रातों-रात फैसला हुआ था, वैसा ही कुछ फिर से क्यों नहीं हो सकता? या क्या ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि चीन के साथ हमारे संबंध “सुधर” रहे हैं? ये भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी की आगामी चीन यात्रा और SCO शिखर सम्मेलन में उनकी उपस्थिति इस ‘नरमी’ का कारण है। कांग्रेस ने भी यही आरोप लगाया है। तो क्या अब हमारी विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा चीन के साथ संबंधों के हिसाब से तय होगी? क्या दो देशों के बीच की राजनीति, डेटा सुरक्षा से ज़्यादा ज़रूरी है?

‘चीनी प्रेम’ और ‘तकनीकी गड़बड़ी’ का घालमेल

राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप तो चलता रहता है, लेकिन जब बात देश की सुरक्षा की हो तो थोड़ा गंभीर होना चाहिए। सरकार कह रही है कि विपक्ष के आरोप “ग़ैर-ज़िम्मेदाराना” हैं। लेकिन सच तो ये है कि जब वेबसाइट ही खुल रही है, तो सवाल तो उठेंगे ही। और ये सवाल सिर्फ़ विपक्ष के नहीं हैं, बल्कि हर उस भारतीय के हैं जो अपनी डेटा प्राइवेसी और सुरक्षा को लेकर चिंतित है।

क्या यह सिर्फ एक बाजारवाद का खेल है? क्या बड़ी कंपनियों के दबाव में ये सब हो रहा है? अमेरिका भी टिकटॉक को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानता है और वहाँ तो बाइटडांस को अपनी कंपनी बेचने तक का आदेश दिया गया है। तो क्या हम अमेरिका से भी ज़्यादा मज़बूत हैं, जो बिना किसी शर्त के किसी भी चीनी ऐप को वापस आने देंगे?

विशेषज्ञों का कहना है कि टिकटॉक तभी भारत लौट पाएगा जब वह भारतीय कानूनों और डेटा प्रोटेक्शन के सख़्त नियमों का पालन करे। क्या ऐसा कोई ठोस आश्वासन मिला है? शायद नहीं। तो फिर ये सब क्यों हो रहा है?
साफ़ है कि फ़िलहाल टिकटॉक की वापसी की खबरें सिर्फ हवा और तकनीकी ग़लतियों पर आधारित हैं। लेकिन ये हवा तब तक चलती रहेगी, जब तक सरकार इस मामले में पूरी तरह से पारदर्शी नहीं हो जाती। क्योंकि जब बात देश की सुरक्षा की आती है, तो ‘तकनीकी ग़लती’ जैसा कोई बहाना नहीं चलता।

-मोहम्मद शाहिद

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