हाकी ओलंपियन डॉक्टर वेस पेस अब हमारे बीच नहीं रहे, उनकी यादें हमेशा साथ होंगी- अशोक कुमार ध्यानचंद

SPORTS उत्तर प्रदेश

 

डॉक्टर वेस पेस अब हमारे बीच नहीं रहे। यह शब्द लिखते हुए मैं अपने आपको संभाल नहीं पा रहा हूं । यह समाचार मेरे लिए किसी वज्रपात से कम नहीं क्योंकि डॉक्टर वेस पेस ही वे खिलाड़ी रहे हैं जिनके सानिध्य में मैंने अपनी हाकी को 1969 मोहन बागान क्लब में निखारना प्रारंभ किया था और उनसे मेरी पहली मुलाकात वहीं हुई थी ।जिनके बेहतरीन रॉन्ग फुट पर राइट इन साइड को दिए पासेस से न जाने मैने कितनी ही बार विरोधी टीमों की रक्षा पंक्ति को ताश के पत्तों की भांति बिखरते हुए, डी में भूचाल ला दिया । आज मुझे यह सुनकर यकीन ही नहीं आ रहा कि डॉक्टर वेस पेस ने हमें अलविदा कह दिया है।मुझे खेल मैदान पर डॉक्टर पेस जैसा बेहतरीन सेंटर हॉफ मिला जिनके साथ खेलते हुए कलकत्ता लीग, बेटन कप , बॉम्बे गोल्ड कप जैसे प्रतिष्ठित घरेलू टूर्नामेंट्स खेलने और जीतने का अवसर मिला, उनके बगल में खड़े होकर चमचमाती हुई ट्राफियों को उठाने का मौका मिला।

खेल मैदान पर डॉ पेस जितने कुशल और अनुशासित खिलाड़ी थे, उतने ही जीवन में आपसी व्यवहार में हम सभी से अत्यंत मृदुभाषी, भाव से भरे व्यक्तित्व । उन दिनों मेरा सौभाग्य ही रहा कि मैं भारत के महान और मंजे हुए हाकी कला के धनी खिलाड़ियों के साथ मुझे खेलने , सीखने दोनों का अवसर मिला । जिनमें मेरे खेल जीवन के आदर्श लेफ्ट इन साइड इनाम साहब, हमारे सभी के सम्मानित वरिष्ठ ग्रेट गुरबख्श सिंह, मेरे बड़े भाई क्लासिकल राइट हॉफ राजकुमार सिंह, गति और गेंद के साथ हवा से बात करने वाले लेफ्ट आउट शाहिद नूर और गेंद नियंत्रण और वितरण के माहिर डॉक्टर वेस पेस । यही वह वर्ष भी रहा जब मुझे दुनिया के बेहतरीन लेफ्ट इन इनाम साहब के चलते राइट इन साइड पोजीशन पर स्थानांतरित होना पड़ा । मैं ऐसा मानता हूं कि यह मेरे खेल जीवन का एक बड़ा और महत्वपूर्ण निर्णय रहा है । मैं डॉ वेस पेस के साथ 1972 म्यूनिख ओलंपिक भारतीय हाकी टीम का हिस्सा भी रहा हूं ।

यह हमारा दुर्भाग्य ही रहा कि एक अच्छी व्यवस्थित टीम के होते हुए भी हम ओलंपिक स्वर्ण पदक की दौड़ से बाहर हुए अन्यथा 1972 की म्यूनिख ओलंपिक भारतीय हाकी टीम भी दुनिया के बेहतरीन खिलाड़ियों में गिने जाने वाले खिलाड़ियों से भरी हुई थी , किन्तु हमे कांस्य पदक से ही संतोष करना पड़ा। लेकिन पोडियम पर खड़े होने का और डॉक्टर पेस के साथ गले में भारत के लिए मैडल पहनने का सौभाग्य हासिल हुआ मुझे एक बार फिर बाबू साहब जैसे दिग्गज खिलाड़ी और प्रशिक्षक के साथ हाकी सीखने खेलने का अवसर मिला।

मुझे जहां तक याद आता हैं वैसे तो मैं डॉ पेस से अनेकों बार कार्यक्रमों में मिलता रहा। किन्तु सुनहरी यादों लंबी चर्चा के साथ आज से कोई तीन चार बरस पहले मेरी उनसे आखिर और अंतिम मुलाकात हुई थी और यही मुझे वह घटना याद हो आती हैं जब डॉ पेस को पता चला कि मैं कलकत्ता आ रहा हूं तो उन्होंने मुझसे कहा यार अशोक मेरा म्यूनिख ओलंपिक मेडल कहीं गुम हो गया है उसकी प्रतिकृति बनानी है बस उनका यह कहना था जब मैं कोलकाता पहुंचा तो मुलाकात होते ही मैने अपना म्यूनिख ओलंपिक का मैडल डॉ पेस के हाथों में रख दिया। डॉक्टर साहब आप इससे अपने मैडल की प्रतिकृति बनवा लीजिए पांच छह महीने मेरा यह ओलंपिक मैडल उन्हीं के पास रहा। किन्तु उन्होंने वह मैडल यह कहते हुए मुझे लौटा दिया कि अशोक इसकी प्रतिकृति नहीं बन सकी, जिसका अफसोस मुझे भी है और मैं समझता हूं कि उनको भी यह दुःख अपने जीवन में भी रहा होगा लेकिन संयोग देखिए पिता का ओलंपिक कांस्य पदक खो गया तो पुत्र लेंडर पेस ने अटलांटा ओलंपिक्स में कांस्य पदक जीतकर पिता के उस खोए हुए पदक को मेहनत से वापस लाकर उन्हें खुशी से भर दिया। जब मैं मोहन बागान से खेलता रहा और अभ्यास के लिए हम सब मैदान पर होते थे तो लेंडर पेस अक्सर डॉ पेस के साथ मैदान आया करता था। बचपन की वही शरारतें देखने को मिलती थीं। आज बस डॉक्टर पेस के साथ बिताई यादें ही बची है जो बार बार याद हो आ रही है । आंखें नम हो जाती हैं उन बिताए हुए लम्हों को याद कर एक महान खिलाड़ी, मिलनसार व्यक्तित्व , एक अच्छे इंसान ने हम सभी का साथ छोड़ दिया और हमे अलविदा कह गया । ईश्वर से प्रार्थना है कि दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दे,साथ ही परिवार को यह दुःख सहन करने की शक्ति प्रदान करे। इस दुःख की घड़ी में ध्यानचंद परिवार पेस परिवार के साथ प्रतिपल खड़ा हुआ है।

 

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